तुं आ राज्य कर. पछी तारी साथे हुं पण मुनिपणुं अंगीकार करीश.
शीघ्र मोक्षने साधवा मागुं छुं. स्वर्गसमान आ भोगोमां के राजसंपदामां मने क्यांय रुचि नथी. रत्नत्रयरूप जहाजमां
बेसीने हवे हुं आ संसारसमुद्रने तरवा चाहुं छुं. अनंतकाळना जन्म–मरणोथी आ आत्मा खेदखिन्न थयो–
तेनाथी हवे बस थाओ..
विवाद शो? हे श्रीराम! हे लक्ष्मण! तमे बळदेव–वासुदेवनो महान वैभव प्राप्त कर्यो छे तो पण मने हवे तेमां
रुचि नथी. केम के–जेम समुद्र नदीओनां पाणीथी कदी तृप्त थतो नथी तेम बाह्य विषयो वडे आत्माने कदी तृप्ति
थती नथी. माटे हवे तो हुं तत्त्वज्ञानना मार्गमां (–मुनिमार्गमां) प्रवर्तीश.
स्नेहपूर्वक लक्ष्मणे तेनो हाथ झालीने रोकयो..माता कैकेयी पण आंसु सारती आवी...राम–लक्ष्मणनी राणीओ (सीता,
विशल्या, वगेरे) ए पण भरतने घणो विनव्यो..अने जलक्रीडा माटे सरोवर किनारे लई गई..पण आ तो अत्यंत
विरक्त छे..बधा जलक्रीडा करे छे त्यारे आ तो सरोवरना कांठे ऊभो छे..ने बाजुमां आवेला जिनमंदिरमां जईने
भगवाननी पूजा–भक्ति करे छे...
हाथी नगरनो दरवाजो तोडीने, भरत ज्यां पूजा करतो हतो त्यां आव्यो..सीता वगेरे राणीओ भयभीत थईने
भरतना शरणे आवी. हाथीने भरत तरफ जतो देखीने तेनी माता हाहाकार करवा लागी...सीता वगेरेने
बचाववा माटे भरत तेमनी आगळ आवीने ऊभो रह्यो. भरतने देखतां ज हाथीने जातिस्मरण थयुं..ते
पोतानो पूर्वभव विचारीने शांतचित्त थई गयो ने सूंढ नरम करीने विनयपूर्वक भरतनी पासे ऊभो.
भरते मधुर वाणीथी कह्युंः अहो गजराज! कया कारणथी तुं क्रोधित थयो! भरतना वचन सांभळतां अत्यंत
शांत अने सौम्य थईने त्रिलोकमंडन हाथी भरतनी सामे जोई रह्यो अने मनमां विचारवा लाग्योः अहा! आ
भरत मारो परम मित्र छे, छठ्ठा स्वर्गमां अमे बंने साथे हता; त्यांथी आ तो उत्तमपुरुष थयो ने हुं महानिंद्य
पशुयोनि पाम्यो! धिक्कार आ जन्मने! हवे शोच करवो वृथा छे, हवे तो एवो उपाय करुं के जेथी आत्मानुं
कल्याण थाय, ने संसार भ्रमणमां न भमुं. शोच करवाथी शुं? हवे सर्व प्रकारनो उद्यम करीने भवदुःखथी
छूटवानो उपाय करुं–आ रीते, जेने पूर्व भवनुं भान थयुं छे एवो ते गजेन्द्र अत्यंत विरक्त थईने
हितचिंतन करवा लाग्यो.
शांत थयो त्यारथी बधी चेष्ठा छोडीने,