मिथ्यात्वरूपी वमळ वडे आत्माए आस्रवरूप वहाणने पकडयुं हतुं; पण, जेम समुद्र उपशांत थईने वमळ
शमी जतां ते वहाणने छोडी दे छे, तेम चैतन्यसमुद्र भगवान आत्मा क्रोधादिथी भिन्नता जाणीने ज्यां
स्वरूपमग्न प्रशांत थयो त्यां ‘क्रोधादि ते हुं’ एवा मिथ्या विकल्पोरूपी वमळ शमी गया ने आत्माए
आस्रवरूपी वहाणने छोडी दीधुं.–आ रीते दरियाना द्रष्टांते भेदज्ञान वडे आत्मा आस्रवोने छोडे छे.
उत्तरः– ना,
उत्तरः– ना;
मिथ्याज्ञान न टळे–एम बने नहि; सम्यग्ज्ञान उत्पन्न थाय ने आस्रवोथी जुदुं न पडे एम पण बने
नहि. आ रीते ज्ञाननी उत्पत्ति, अज्ञाननो नाश ने आस्रवोथी निवृत्ति–ए त्रणेयनो एक ज काळ छे.
भेदज्ञान थया पछी जेम जेम आत्मा ज्ञानमां स्थिर थईने विज्ञानघन थतो जाय छे तेम तेम ते
आस्रवोथी छूटतो जाय छे; अने जेम जेम आस्रवोथी छूटतो जाय छे तेम तेम विज्ञानघन थतो जाय छे.
अने आ रीते भेदज्ञान करीने विज्ञानघन थवुं–ते ज धर्म छे.
मुनिराज कहे छे के नियमथी जे मोक्षनो मार्ग तेनुं
आ ‘नियमसार’ मां प्रतिपादन छे, अने
निजात्मानी भावना अर्थे आ शास्त्र रचाय छे. हे
भव्य श्रोता! अमे आ नियमसारमां जे
निजात्मभावनानुं वारंवार घोलन कर्युं छे तेवी
निजात्म भावनाना वारंवार घोलनथी तने पण
नियमथी मोक्षमार्गनी प्राप्ति थशे. नियमरूप जे
मोक्षमार्ग छे तेने साधतां साधतां अमारुं आ कथन
छे, तेमां बतावेली भावनाना घोलनथी तने पण
अमारा जेवा मोक्षमार्गनी चोक्कस प्राप्ति थशे.–आ
रीते वक्ता अने श्रोतानी संधिना कोलकरार छे.