Atmadharma magazine - Ank 173
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 11 of 25

background image
ः १०ः आत्मधर्मः१७३
ए वात तो फोतरांनी जेम फू थईने ऊडी जाय छे. अनंतशक्तिथी अभेद चैतन्यद्रव्य छे तेना ज आश्रये बधा
गुणनुं निर्मळ कार्य थाय छे, ए सिवाय श्रद्धा वगेरे गुणनो भेद पाडीने ते भेदना लक्षे सम्यग्दर्शनादि कार्य
करवा मांगे तो तेम थतुं नथी. गुणभेदने लक्षमां लईने आश्रय करतां गुणो सम्यक्रूपे परिणमता नथी,
अभेदद्रव्यने लक्षमां लईने आश्रय करतां श्रद्धा वगेरे बधाय गुणो पोतपोताना निर्मळ कार्यरूपे परिणमवा
मांडे छे.
आत्मानुं आवुं सूक्ष्मस्वरूप समजे नहि ने दान–दया वगेरे बाह्य–स्थूळतामां धर्म मानी ल्ये ते कांई
जैनधर्मनुं स्वरूप नथी, ते तो मूढ जीवोए मानेलो, मिथ्या धर्म छे. जेम कडवा करीयातानी कोथळी उपर ‘साकर’
एवुं नाम लखी नांखे पण तेथी कांई करीयातुं कडवुं मटीने मीठुं न थई जाय. तेम दान–दया वगेरे कडवा–
विकारी–भावो उपर ‘धर्म’ एवुं नाम आपीने कुगुरुओ मूढ जीवोने छेतरी रह्या छे, पण तेथी कांई दया–
दानादिनो राग ते धर्म न थई जाय. धर्मनी प्राप्ति तो पोताना आत्मामांथी शुद्धचैतन्यस्वभावना आश्रये ज थाय
छे. धर्म ते आत्मानुं कर्म छे ने तेनी प्राप्ति आत्मामांथी ज थाय छे. सम्यग्दर्शन जो के श्रद्धागुणनुं कार्य छे, पण ते
श्रद्धागुण अनंतगुणना पिंडथी जुदो पडीने कार्य नथी करतो..जुदा जुदा गुणदीठ जुदी जुदी ‘कर्मशक्ति’ (–
कार्यरूप थवानी शक्ति) नथी, पण अखंड आत्मद्रव्यनी एक ज कर्मशक्ति छे, ते बधा गुणोमां व्यापीने पोतानुं
कार्य करे छे. एटले बधा गुणोनुं निर्मळ कार्य अखंड द्रव्यना ज आश्रये थाय छे. केवळज्ञान पण आत्मानुं कर्म छे
अने आठ कर्मरहित एवी सिद्धदशा ते पण आत्मानुं कर्म छे. आत्मा पोतानी शक्तिथी ज ते कर्मरूप परिणमे छे,
कांई बहारथी ते कर्म नथी आवतुं.
“आतमभावना भावतां जीव लहे केवळज्ञान रे..” एटले शुं? केवळज्ञानरूपी कार्य जीव बहारथी नथी लावतो,
पण पोताना आत्मस्वभावनी भावना करतां करतां आत्मा पोते ज केवळज्ञानरूप थई जाय छे. ‘आतमभावना
भावतां..” एम गोख्या करे, पण आत्मा शुं ने तेनी भावना शुं ते जाणे नहि ने बहारथी के आ बोलवाना रागथी
मने लाभ थई जशे एम माने तेने केवळज्ञान थतुं नथी, ते तो अज्ञानी ज रहे छे. केवळज्ञान केम थाय? के आत्मानी
भावनाथी. आत्मा केवो? के ज्ञानादि अनंतगुणोथी परिपूर्ण; एवा आत्मानी भावना एटले तेनी सन्मुख थईने तेना
सम्यक्श्रद्धा–ज्ञानपूर्वक तेमां लीनता, ते केवळज्ञाननो उपाय छे. जेने निमित्तनी के पुण्यनी भावना छे तेने आत्मानी
भावना नथी.
आ आत्माने शांति जोईए छे. आत्मानुं शांतिरूपी कार्य क्यां छे तेनी आ वात छे. आ आत्मानुं
शांतिरूपी कार्य शुद्धस्वभाव सिवाय बीजा कोई विकल्पमां, देव–गुरु–शास्त्रमां के गूफा–पर्वत वगेरेमां नथी,
माटे भाई! बाह्यद्रष्टि छोडीने तारा आत्मामां ज शांति शोध. जेम साकर पोते गळी छे, लींबुं पोते खाटुं छे,
कोलसो पोते काळो छे, अग्नि पोते उनो छे, तेम आत्मा पोते शांतिस्वरूप छे. भाई! आवा तारा आत्मा
सामे जोतां तारो आत्मा पोते शांतिरूप थई जशे. आ सिवाय बहारमां जे शांति शोधे के बहारना साधनवडे
शांति मेळववा मांगे ते पोताना आत्माने के पोताना आत्मानी शक्तिने मानतो नथी, ने तेने शांति मळती
नथी.
जेम कोई माणस चक्रवर्तीने ओळखीने तेनी सेवा करे तो तो तेने लक्ष्मी वगेरेनो लाभ मळे; पण चक्रवर्तीने तो
ओळखे नहि ने गरीब भीखारीने चक्रवर्ती मानीने तेनी सेवा करे तो तेने कांई लाभ न मळे,–मात्र ते दुःखी ज थाय;
तेम चैतन्य चक्रवर्ती आत्माने ओळखीने तेनुं जे सेवन करे तेने तो सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप लक्ष्मीनो लाभ मळे.
पण चैतन्यचक्रवर्तीने तो ओळखे नहि ने रागनी तुच्छ वृत्तिओने ज चैतन्यस्वभाव मानीने सेवे तेने रत्नत्रयनो
लाभ मळे नहि पण ते दुःखी ज थाय.
‘तमे पुण्यथी धर्म नथी मानता, माटे तमे पुण्यने ऊडाडो छो”–एम केटलाक लोको अणसमजणने लीधे
फरियाद करे छे. पण खरेखर तो जेओ पुण्यने धर्म माने छे तेओ ज पुण्यने उडाडे छे; पुण्यने ज धर्म मान्यो एटले
पुण्यतत्त्वनुं जुदुं अस्तित्व तेनी मान्यतामां रह्युं ज नहि. ज्ञानी तो पुण्यने पुण्यरूपे जाणे छे, ने धर्मने तेनाथी भिन्न
धर्मरूपे जाणे