Atmadharma magazine - Ank 173
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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फागणः २४८४ः ११ः
छे, एटले तेनी मान्यतामां पुण्य अने धर्म बंनेनुं भिन्न भिन्न अस्तित्व जेम छे तेम रहे छे. ज्ञानी तो पुण्यने
पुण्यरूपे स्थापे छे, ने अज्ञानी पुण्यने पुण्यरूपे न स्थापतां तेने उथापे छे.
जेम लीली लींबोडीने कोई नीलमणि मानी ल्ये तो ते लींबोडीने पण नथी ओळखतो ने नीलमणिने
पण नथी ओळखतो; काचना कटकाने कोई हीरो मानी ल्ये तो ते काचने पण नथी ओळखतो ने हीराने पण
नथी ओळखतो, बिलाडीने ज वाघ मानी ल्ये तो ते बिलाडीने पण नथी ओळखतो ने वाघने पण नथी
ओळखतो; तेम रागने ज जे वीतरागधर्म मानी ल्ये ते रागने पण नथी ओळखतो ने धर्मने पण नथी
ओळखतो. व्यवहारना आश्रये निश्चय प्रगटवानुं माने ते व्यवहारने पण नथी जाणतो ने निश्चयने पण नथी
जाणतो. निमित्त उपादाननुं कांई कार्य करे एम माने ते निमित्तने पण नथी जाणतो ने उपादानने पण नथी
जाणतो. स्वनुं कार्य परना आश्रये थाय एम जे माने ते स्वने पण नथी जाणतो ने परने पण नथी जाणतो.
देव–गुरु–शास्त्रनो उपदेश तो एवो छे के तारा आत्माना आश्रये ज तारो धर्म छे, पराश्रये शुभरागनी
लागणी थाय ते तारो धर्म नथी;–छतां जे पुण्यने धर्म माने छे तेणे देव–गुरु–शास्त्रने, पुण्यने के धर्मने कोईने
मान्या नथी, निश्चय–व्यवहारने के द्रव्य–गुण–पर्यायने पण जाण्या नथी. संतो केवा होय, धर्मात्मा केवा होय–
साचा वैराग्यनी–त्यागनी के व्रतादिनी भूमिका केवी होय, तेनी तेने खबर नथी. अहो! मूळभूत
चैतन्यस्वभाव जेनी प्रतीतमां न आव्यो तेनामां कोई पण तत्त्वोनो यथार्थ निर्णय करवानी ताकात नथी.
पोताना चैतन्यस्वभावनो आश्रय करतां ज ज्ञाननी स्व–परप्रकाशक शक्ति खीली जाय छे अने ते स्व–परने
यथार्थ जाणे छे. एकला पर तरफ झूकेलुं ज्ञान स्वने के परने कोईने यथार्थ जाणतुं नथी, अने स्वभाव तरफ
वळेलुं ज्ञान स्वने तेमज परने यथार्थ जाणे छे. अहो! आमां जैनशासनमां ऊंडुं रहस्य छे. आ रहस्य समज्या
वगर जैनशासनना मूळनो पत्तो लागे तेम नथी. ज्यां स्वभाव–सन्मुख थयो त्यां पोतानां स्वभावमां ज्ञान–
आनंद वगेरेनुं परिपूर्ण सामर्थ्य छे तेने जाण्युं, वर्तमान पर्यायमां केटला ज्ञान–आनंद प्रगटया छे ते पण
जाण्युं, केटला बाकी छे ते पण जाण्युं, ज्ञान–आनंद प्रगटवामां निमित्तो (देव–गुरु वगेरे) केवा होय ते पण
जाण्युं, ज्ञान–आनंद प्रगटया तेनी साथे (साधकपणामां) कई भूमिकाए केवो व्यवहार होय ने केवा रागादि
छूटी जाय ते पण जाण्युं. बीजा ज्ञानी–मुनिओनी अंर्तदशा केवी होय ते पण जाण्युं. आ रीते शुद्ध
आत्मस्वभावनी सन्मुख थईने तेने जाणतां आखुं जैन शासन जाण्युं. अने जेणे आवा आत्मस्वभावने न
जाण्यो तेणे जैनशासनना एकेय तत्त्वने वास्तविकपणे जाण्युं नथी.
जुओ, आ धर्म अने धर्मनी रीत कहेवाय छे.
धर्म शुं छे?–आत्मानी निर्मळपर्याय;
धर्म केम थाय?–शुद्ध आत्मद्रव्यना आश्रये;
शुद्ध स्वभावने जाणे नहि ने बीजाना आश्रये जे धर्म माने तेणे धर्मनुं स्वरूप के धर्मनी रीत जाणी नथी.
शुभरागने धर्मनुं परंपरा कारण शास्त्रोमां क्यांय कह्युं होय तो ते उपचारथी छे एम समजवुं; ज्यारे ते रागनो आश्रय
छोडीने शुद्ध स्वभावनो आश्रय कर्यो त्यारे ज धर्म थयो, अने पूर्वना रागने उपचारथी कारण कह्युं;–पण वास्तविक
कारण ते नथी; वास्तविक कारण तो शुद्धस्वभावनो आश्रय कर्यो ते ज छे.
साधक जीव पोताना शुद्धस्वभावनो आश्रय करीने पोताना निर्मळ ज्ञानादि कार्यरूपे थाय छे. त्यां
स्वाश्रये सम्यग्ज्ञानपणे परिणमतां, ते ते भूमिकामां वर्तता रागादिने पण ते ज्ञेयपणे जाणे छे. ते रागने
जाणती वखते पण तेने जाणनारुं जे ज्ञान छे ते ज धर्मीने पोतना कर्मपणे छे, पण जे राग छे तेने ते पोताना
कर्मपणे स्वीकारता नथी, तेने तो ज्ञानथी भिन्न जाणे छे. रागने जाणती वखते पण श्रद्धामां रागरहित
स्वभावनुं ज अवलंबन वर्ते छे; एटले आवी स्वभावद्रष्टिमां ज्ञानीने राग तो ‘असद्भुत’ थई गयो. रागने
जाणतां तेनुं जोर राग उपर नथी जतुं, तेनुं जोर तो ज्ञानस्वभाव उपर ज रहे छे, ते ज्ञानस्वभावना आश्रये
निर्मळपर्याय ज तेने ‘सद्भुत’पणे वर्ते छे, रागादिने ते ‘असद्भुत’ जाणे छे. मिथ्याद्रष्टि रागथी भिन्न शुद्ध
स्वभावने नथी जाणतो, ते तो रागने स्वभाव साथे एक–मेकपणे ज जाणे छे, एटले तेने तो ‘असद्भुत’
एवा रागनुं पण यथार्थ