Atmadharma magazine - Ank 173
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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फागणः २४८४ः १३ः
लक्ष्मी कोईनी राखी रहेती नथी
(१) अ...नि...त्य...भा...व...ना
द्वादशअनुप्रेक्षामांथी अनित्यभावना
उपरना पू. गुरुदेवना प्रवचनो उपरथी,
वैराग्यप्रधान सुंदर अने हळवो लेख,
सवारमां जेने राजसिंहासन उपर
देख्यो होय ते ज सांजे स्मशानमां राख
थतो देखाय छे–आवा प्रसंगो तो संसारमां
अनेक देखाय छे, छतां मोहमूढ जीवोने
वैराग्य नथी आवतो. बापु! संसारने
अनित्य जाणीने तुं आत्मा तरफ वळ..एक
वार तारा आत्मा तरफ जो. बहारना
भावो अनंत काळ कर्या छतां शांति न
मळी, माटे हवे तो अंतर्मुख था. आ संसार
के संसारना संयोगो स्वप्ने पण इच्छवा
जेवा नथी, अंतरनुं एक चिदानंद तत्त्व
भावना करवा जेवुं छे.
आत्मा ज्ञानानंदस्वरूप छे, आत्माने पोतानुं ज्ञानस्वरूप ज ध्रुव रहेनार छे, ए सिवाय लक्ष्मी वगेरे कांई पण
ध्रुव नथी, लक्ष्मी वगेरेनो संयोग क्षणिक छे, ते क्षणमात्रमां छूटी जाय छे, कोई जीव तेने रोकी शकतो नथी. लक्ष्मी
वगेरेने स्थिर राखवानुं कोई अभिमान करे तो ते मिथ्या छे, केमके पुण्यवंत एवा चक्रधरोने पण जे लक्ष्मी शाश्वतरूप
नथी रहेती ते लक्ष्मी बीजा पुण्यहीन जीवोमां रति केम पामशे? कुलीन के धीर, पंडित के सुभट, पूज्य, धर्मात्मा के
रूपवान, सुजन के महापराक्रमी वगेरे कोई पण पुरुषमां लक्ष्मी राचती नथी,–एकरूप रहेती नथी.
(१) “अमे तो कुलीन छीए, अमारे तो दस दस पेढीथी घणी लक्ष्मी चाली आवे छे तो हवे अमारी पासेथी ते
क्यां जवानी छे!”–आम कोई अभिमान करे तो ते वृथा छे. अरे भाई! लक्ष्मीनो स्वभाव ज अध्रुव छे, वंशपरंपराथी
चाली आवती लक्ष्मी पण क्षणमात्रमां चाली जाय छे, त्यारे तेने कोई रोकी शकतुं नथी. जेना बापदादा कोटयाधिपति
श्रीमंत होय छतां बे टंक भोजन मळवुं पण जेने