Atmadharma magazine - Ank 173
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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फागणः २४८४ः १७ः
ए प्रमाणे, आत्माना स्वभावने ध्रुव जाणीने, अने लक्ष्मीने अध्रुव जाणीने, जे जीव आत्मानो प्रेम करे छे ने
लक्ष्मीनो प्रेम छोडे छे, अने धर्मना वात्सल्यपूर्वक पोतानी लक्ष्मीनुं दान करे छे तेनुं जीवन सफळ छे. पोते तो धर्मयुक्त
वर्ते छे ने बीजा धर्मात्माने देखीने प्रमोदथी निरपेक्षपणे (–कोई पण जातना बदलानी आशा वगर) लक्ष्मीनुं दान करे
छे, तेनुं जीवन सफळ छे. मोक्षमार्गसाधक मुनिवरोने के धर्मात्माने जोतां ज धर्मीने एवा भावो उल्लसे छे के वाह! आ
जीव मोक्षमार्गने साधी रह्या छे, हुं जे मोक्षमार्गने साधवा मांगु छुं तेने ज आ साधी रह्या छे, एनुं जीवन धन्य छे; ने
एवी सेवामां मारी लक्ष्मी वपराय तेमां मारुं जीवन पण धन्य छे.–आम भक्तिथी उल्लसित थईने आहारदान,
शास्त्रदान वगेरेमां पोतानी लक्ष्मी धर्मी जीव होंसथी वापरे छे.
जुओ तो खरा, छठ्ठा गुणस्थाने वर्तता मुनिओनो आ उपदेश छे...ए मुनिवरो तो जगतथी निःस्पृह
अने निरपेक्ष महासंतो हता; पोते वैराग्यभावनाओमां झूलता झूलता आ वैराग्यभावनाओनो उपदेश
नीकळ्‌यो छे. तेओ पोते तो लक्ष्मी वगेरेना सर्वस्वत्यागी छे; पण जे जीव धर्मात्मा छे ने हजी लक्ष्मी वगेरेनो
सर्वथा त्याग नथी करी शकतो, गृहस्थपणामां वर्ते छे; एवा जीवने जिनमंदिर बंधाववानो, भगवाननी पूजा–
प्रतिष्ठा कराववानो, मोटी मोटी रथयात्रानो, तीर्थोनी जात्रानो, शास्त्रोना प्रचारनो, साधर्मी प्रत्येना
वात्सल्यनो वगेरे भाव आवे छे, मुनिओ पण गृहस्थोने तेवा कार्योनो उपदेश आपे छे, ने तेवा कार्योमां
गृहस्थो पोतानी लक्ष्मीनो उपयोग करे छे.
श्री वसुबिंदुआचार्य–के जेओ कुंदकुंदाचार्यदेवना शिष्य हता अने जेमनुं बीजुं नाम जयसेन हतुं–तेओ
प्रतिष्ठापाठमां कहे छे के–जेने पोतानी लक्ष्मी धार्मिक कार्यमां खरचवानी भावना जागी छे एवो श्रावक कोई
मुनि पासे के प्रतिष्ठाचार्य पासे जईने विनयपूर्वक वंदन करीने कहे केः हे अकारण बांधव! पूर्वोपार्जित पुण्यना
प्रभावथी हुं आवुं सुंदर कुळ, शुभ गोत्र, आर्य देश तथा मनुष्यभव अने जिनधर्म पाम्यो छुं. अने मारा
पिताए न्यायपूर्वक मेळवेलुं धन मने आप्युं छे तथा में पण मेळव्युं छे, तेमांथी केटलुंक धन मारा आत्महितने
माटे स्त्री–पुत्र–मित्रादिनी संमतिपूर्वक हुं सत्कार्यमां खरचवा चाहुं छुं. हे स्वामी! हुं आ लक्ष्मीने कुलटा स्त्री
समान जाणुं छुं; अरे! चक्रवर्तीनी संपदा पण स्थिर नथी तो मारी संपदानी शी वात? तेथी हे स्वामी! आ
लक्ष्मीवडे श्री अरहंतदेवना पंचकल्याणक करवानी मारी अभिलाषा छे..स्वर्ग–मोक्षना कारणरूप जिनबिंब तेने
हुं स्थापवा चाहुं छुं, माटे हे स्वामी! मने आज्ञा आपो!
त्यारे श्री गुरु पण जिनेश्वरदेवनी प्रतिष्ठाना उत्तम कार्यनी प्रशंसापूर्वक तेने धन्यवाद आपे छे.
–अहीं एम बताववुं छे के, जेने चैतन्यनुं लक्ष होय ने लक्ष्मी वगेरेने अनित्य जाणतो होय, तेने धर्मप्रसंगमां
लक्ष्मी वापरवानो आ रीते उल्लास आवे छे.
अहा, आ अनित्य भावनाना मूळ पण ऊंडा छे; एकली अनित्यताना आधारे अनित्यभावना नथी होती,
पण ध्रुव चैतन्यभावना आधारे वास्तविक अनित्यभावना होय.
आचार्यदेव कहे छे केः अरे, आ धन, यौवन ने जीवन–ए बधुं पाणीना पटपोटा जेवुं क्षणिक छे–एम
देखता होवा छतां जीवो तेने नित्य मानी रह्या छे–ए खरेखर तेमना मोहनुं ज अतिबळवानपणुं छे! धन चाल्युं
जाय छे, जुवानी पण चाली जाय छे ने बुढ्ढापो आवी जाय छे, तथा जीवन पण क्षणभरमां चाल्युं जाय छे, २०–
२प वर्षनी जुवानजोध वयमां पण घणाना जीवन पूरा थई जाय छे,–आम प्रत्यक्षपणे धन–यौवन अने जीवनने
क्षणभंगुर देखवा छतां, मोहने लीधे जीव तेने नित्य मानीने तेमां ज मोहित थई रह्यो छे, ने पोताना
चिदानंदतत्त्वने भूली रह्यो छे–ए खेदनी वात छे. एवा जीवोने वैराग्यथी समजावे छे के अरे जीवो! आ धन,
यौवन के जीवन क्षणभंगुर छे, ए कोई जीवनी साथे नथी रहेवाना, पाणीना परपोटानी जेम क्षणमां ते नष्ट थई
जशे, माटे तेनो मोह छोडो, ने अविनाशी चैतन्य पदमां प्रीति जोडो, तेनी भावना करो.–ए ज दुःखमय
संसारथी छूटीने आनंदनी प्राप्तिनो उपाय छे.
सवारमां जेने राजसिंहासन उपर देख्यो होय ते ज सांजे स्मशानमां राख थतो देखाय छे,–आवा प्रसंगो तो
संसारमां अनेक देखाय छे, छतां मोहमूढ