Atmadharma magazine - Ank 173
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः १८ः आत्मधर्मः १७३
जीवोने वैराग्य नथी आवतो. अरे बापु! संसारने अनित्य जाणीने तुं अंतर तरफ वळ..एक वार
तारा आत्मा तरफ जो. बहारना भावो अनंत काळ कर्या छतां शांति न मळी, माटे हवे तो अंतर्मुख
था. आ संसार के संसारना संयोगो स्वप्ने पण इच्छवा जेवा नथी, अंतरनुं एक चिदानंद तत्त्व
भावना करवा जेवुं छे.
तारा चैतन्यतत्त्वने नित्यरूप भाव, ने लक्ष्मी वगेरे संयोगने अनित्यपणे भाव, एटले के
तेनी अनित्यतानुं चिंतन कर.–जेने अनित्य जाणे तेनो मोह केम रहे? न ज रहे. एटले लक्ष्मी वगेरेने जे खरेखर
अनित्य जाणे छे तेने तेनो मोह छूटीने, अंतरमां नित्य चिदानंद तत्त्व तरफ वलण थाय छे ने तेमां ज लीनतानी
भावना थाय छे.
ए ज उपदेश आ अनित्य अधिकारनी छेल्ली गाथामां आपे छे–
त्यक्त्त्वा महामोहं विषयान् श्रृत्वा भंगुरान् सर्वान्।
निर्विषयं कुरुष्व मनः येन सुखं उत्तमं लभते।।२२।।
हे जीव! संसारमां धन, यौवन के जीवन वगेरे बधुं क्षणभंगुर छे एम सांभळीने, ते विषयो प्रत्येना
महामोहने तुं छोड, अने तारा चित्तने निर्विषय करीने चैतन्यनी भावनामां जोड;–आम करवाथी तुं उत्तम सुखने
पामीश. अमारो आ वैराग्य झरतो उपदेश सांभळीने, हे जीव! अनादिथी जेनी प्रीति करी छे एवा विषयोनी प्रीति
छोड, ने अनादिथी जेनी प्रीति नथी करी एवा चैतन्य तत्त्व साथे प्रीति जोडः चैतन्यस्वभावनी भावनाथी तारो
आत्मा परम सुखमय बनशे, परम आनंदमय अविनाशी सिद्धपदनी तने प्राप्ति थशे.
नृत्य करती नीलंजसा देवीनुं मृत्यु देखीने
जेओ समस्त संसारथी अत्यंत विरक्त थया..ने
चिदानंदस्वरूपमां मग्न थया–एवा परम वैरागी
श्री आदिनाथ जिनेन्द्रदेवने नमस्कार हो.
बुद्धिनी रक्षा
राजसभामां राजाओने बुद्धिनी रक्षानो उपदेश आपतां चक्रवर्ती
भरत कहे छे केः–
आ लोक तथा परलोक संबंधी पदार्थोमां हित–अहितनुं ज्ञान
होवुं ते ‘बुद्धि’ छे. ए बुद्धिनुं पालन अर्थात् रक्षण कई रीते थई शके
छे? जो ते जाणवा चाहता हो तो तेनो उत्तर ए छे के–अविद्यानो नाश
करवाथी ज ते बुद्धिनुं रक्षण थई शके छे. मिथ्याज्ञानने अविद्या कहे छे,
अने अतत्त्वोमां तत्त्वबुद्धि होवी ते मिथ्याज्ञान छे. अरहंतदेवना कहेला
होय ते ज तत्त्व छे, अने अरहंत पण ते ज होई शके के जेओए दोष
अने आवरणोनो क्षय कर्यो होय. तेथी, पोताना मननो मेल (अर्थात्
बुद्धिनो दोष) दूर करवा माटे अरहंत देवना मतनो अभ्यास करवो
जोईए.
जिनेन्द्रदेवनो कहेलो मार्ग ज संसारसमुद्रथी तरवानो उपाय छे.
(महापुराण सर्ग ४२)