Atmadharma magazine - Ank 173
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः २०ः आत्मधर्मः १७३
जाय छे..देहथी भिन्न ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने जाणे तो तेओनो ऊगारो थाय. जेम पिताबेठा होय ने सामे तेनो पुत्र
खटारा नीचे कचडाईने मरी जतो होय तो पिताने करुणा आवे छे (–संयोगना कारणे नहि पण पोताने पुत्र उपर
ममता छे ते कारणे),
तेम मुनिवरो अने आचार्य भगवंतो मुमुक्षु जीवोना धर्मपिता छे, आ बहिरात्मा
जीवोने अज्ञानथी भावमरणमां मरता देखीने तेओने करुणा आवे छे के अरेरे! चैतन्यने चूकीने
मोहथी जगत मूर्छाई गयुं छे! तेने पोताना आत्मानी सुधबुध रही नथी. अरे! चैतन्य भगवानने
आ शुं थयुं के जड कलेवरमां मूर्छाई गयो? अरे जीवो! अंतरमां प्रवेश करीए जुओ..तमे तो
चिदानंदस्वरूप अमर छो, आ देह तो जड विनाशक छे. बहिरात्मबुद्धिने लीधे बहिरात्मा अनंत
दुःख भोगवे छे, अहीं
हा! हतं जगत् एम कहीने तेमना उपर करुणा करीने संतो ते बहिरात्मबुद्धि
छोडाववा मांगे छे. ।। १४।।
* * *
ए रीते बहिरात्मानुं स्वरूप वर्णवीने हवे कहे छे के आ देहमां आत्मबुद्धि ते ज संसारना दुःखनुं मूळ छे, माटे
हे जीव! ते बहिरात्मपणुं छोड, ने अंर्तआत्मामां प्रवेश करीने अंतरात्मा था–
मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मधीस्ततः।
त्यकत्वैनां प्रविशेदन्तर्बहिरव्यापृतेन्द्रियः।।१५।।
आ जड शरीरमां आत्मबुद्धि करवी ते घोर संसारदुःखनुं मूळकारण छे, माटे हे जीव! देहमां
आत्मापणानी मिथ्या कल्पना छोडीने, बाह्य विषयो तरफनी प्रवृत्ति रोक, ने अंतरना चैतन्यस्वरूपमां प्रवेश
कर–एवो उपदेश छे.
जीवने भ्रांतिरूपी भूत एवुं वळग्युं छे के ते देहने ज आत्मा मानीने, तेने शणगारे–नवरावे–धोवरावे
तेमां सुख माने छे. धर्मात्माने बहारमां क्यांय आत्मबुद्धि होती नथी. संसारना दुःखनुं मूळ शुं? के शरीरादि
हुं–एवी मिथ्याबुद्धि ज संसारदुःखनुं मूळ छे. देहने आत्मा माने ते पोताना ज्ञानने विषयोथी पाछुं वाळीने
आत्मा तरफ केम वाळे? ते तो इन्द्रियो तरफ ज ज्ञाननुं वलण करे छे ने बहारमां ज व्यापार करे छे, ते ज
दुःख छे. इन्द्रियविषयोथी पाछुं वाळीने ज्ञानने अंतरमां एकाग्र करतां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे छे.
आनंदनुं भाणुं भर्युं छे तेने छोडीने मूढ जीव बहारना विषयोमां आनंद माने छे. अहीं आचार्यदेव ते मूढबुद्धि
छोडवानी प्रेरणा करे छे के अरे जीव! बाह्य विषयोमां भटकवुं छोड ने अंर्तआत्मामां प्रवेश कर. बहारमां
शरीरादिथी तारुं जीवन नथी, शरीरमां मूर्छाथी तो तारुं भावमरण थाय छे. तारुं जीवन तो तारा
चिदानंदस्वरूपमां ज छे, तेमां तुं प्रवेश कर.
जेम राजा पोताने भूलीने एम माने छे के हुं भीखारी छुं; तेम आ चैतन्यराजा पोताना स्वरूपने भूलीने, देह
ते ज हुं छुं–एम मानीने विषयोनो भिखारी थई रह्यो छे; तेनुं नाम भावमरण छे. तेना उपर करुणा करीने कहे छे के
अरे जीवो!
“क्षण क्षण भयंकर भावमरणे कां अहो! राची रहो!”
ए देहादिमां आत्मबुद्धि छोडो, ने भिन्न चैतन्यस्वरूपने ओळखीने तेनी श्रद्धा करो..के जेथी आ घोर दुःखोथी
छूटकारो थाय ने आत्मानुं निराकुळ सुख प्रगटे. आत्मानुं स्वरूप ओळखीने पछी तेने साधतां आत्मा पोते स्वयमेव
परमात्मा बनी जाय छे. साध्य अने साधन बंने पोतामां छे, पोताथी बहार कोई साध्य के साधन नथी, माटे तमारी
चैतन्यसंपदाने संभाळो..ने बाह्यबुद्धि छोडो–एवो संतोनो उपदेश छे.
।। १प।।
* * *