फागणः २४८४ः २३ः
मत्तश्च्युत्वेन्द्रियद्वारैः पतितो विषयेष्वहम्।
तान् प्रपद्याऽहमिति मां पुरा वेद न तत्त्वतः।।१६।।
वर्तमानमां जेने आत्मानुं भान थयुं छे एवो अंतरात्मा पोतानी पूर्व अवस्थाने विचारे छे के अरे! मारा
वास्तविक स्वरूपने पूर्वे में न जाण्युं, अने मारा आवा आनंदस्वरूपथी च्यूत थईने, इन्द्रियोद्वारा पतित थईने हुं
विषयोमां ज भटकयो, तेमां ज सुख मानीने हुं मारा स्वरूपथी भ्रष्ट थयो.
आत्माना स्वभावनुं भान थतां अंदर कृतकृत्यता वेदाय छे. अहो, मारी प्रभुता मारामां छे, मारी प्रभुताने हुं
अत्यार सुधी भूल्यो, तेथी रखडयो; मारा आनंदस्वरूपथी च्यूत थईने विषयो तरफना झंपापातथी हुं दुःखी ज थयो.
पण हवे मने मारा आत्मानी अपूर्व प्राप्ति थई. आवा आत्मानी प्राप्ति एटले के श्रद्धा–ज्ञान–रमणता ते समाधिनुं
कारण छे. भगवाननी स्तुतिमां भगवान पासे वरदान मागे छे के “समाहिवरमुत्तमं दिंतु” हे भगवान! मने
समाधिनुं उत्तम वरदान आपो. ए समाधि केम थाय तेनी आ वात छे.
वर्तमान अपूर्व दशा सहित पोतानी पूर्व दशाने पण अंतरात्मा विचारे छे के अरेरे!
इन्द्रियविषयोमां में अनंतकाळ वीताव्यो छतां तेनाथी अंश मात्र तृप्ति न थई, पण हवे विषयातीत
अतीन्द्रिय ज्ञान स्वभावने जाणतां अपूर्व तृप्ति थई गई. वर्तमानमां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद
आव्यो त्यारे पूर्वना इन्द्रियविषयो प्रत्येथी उदासीनता थई गई ने एम विषाद थयो के अरेरे! मारा
चैतन्यआनंदने चूकीने पूर्वे इन्द्रियविषयोमां में व्यर्थ अनंतकाळ वीताव्यो.
जेणे आत्माना अतीन्द्रिय अमृतनो स्वाद चाख्यो तेने विषयो विष जेवा लागे छे..पर
विषयो तरफनी लागणी तेने दुःखरूप लागे छे, आत्माना निर्विकल्प आनंदना वेदन सिवाय बीजे
क्यांय ते पोतानो आनंद स्वप्नेय मानतो नथी. तेने विषयोनी मीठास लागती होय के रागनी
मीठास लागती होय तेणे अतीन्द्रिय आत्माना वीतरागी अमृतनो स्वाद चाख्यो नथी.
एक तरफ अतीन्द्रिय आनंदनो सागर आत्मा छे;
बीजी तरफ बाह्यमां इन्द्रियना विषयो छे.
त्यां जेमां सुख माने ते तरफ जीव झूके छे. जे जीव अतीन्द्रिय आत्मस्वभाव तरफ झूके छे ते तो पोताना
अतीन्द्रियसुखने अनुभवे छे; अने जे जीव बाह्य विषयोमां सुख मानीने इन्द्रियविषयो तरफ झूके छे ते घोर संसारना
दुःखने पामे छे. सामसामा बे मार्ग छे–(१) अतीन्द्रियस्वभावने चूकीने इन्द्रियविषयो तरफ झूकाव ते संसारमार्ग छे.
अने (२) इन्द्रियविषयोमां सुखबुद्धि छोडीने अंतरना ज्ञानानंदस्वभावमां झूकाव ते मोक्षमार्ग छे.
अहो, आत्मामां आनंदना निधान भर्या छे ते संतो देखाडे छे; पण अज्ञानथी अंध थयेला मूढ
जीवो पोताना आनंदनिधानने देखता नथी.
आनंदं ब्रह्मणो रूपं निजदेहे व्यवस्थितम्।
ध्यानहीना न पश्यंति जात्यंधा ईव भास्करम्।
(– परमानंदस्तोत्र)
अहो, निजदेहमां रहेलो आ ज्ञानस्वरूप आत्मा पोते ज आनंदस्वरूप छे, आनंद ज तेनुं रूप छे, पण अंतरमां
लक्ष करीने आंख ऊघाडे तो देखायने? जेम जन्मांध मनुष्यो झळहळता सूर्यने पण देखता नथी तेम इन्द्रियविषयोमां
ज सुख मानीने वर्तनारा मोहांध अज्ञानी जीवो पोताना आनंदस्वरूप आत्माने देखता नथी. तेओ विषयोमां एवा
मूर्छाई गया छे के जराक पाछुं वाळीने चैतन्य सामे नजर पण करता नथी. ज्ञानी जाणे छे के में पण पूर्वे अज्ञानदशामां
अनंतकाळ गुमाव्यो, पण हवे मने मारा आत्मानुं भान थयुं, हवे में मारा अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद चाख्यो, हवे मने
स्वप्नेय बाह्यविषयोमां सुखबुद्धि थवानी नथी.
‘ज्ञानकला जिसके घट जागी
ते जगमांही सहज वैरागी।
ज्ञानी मगन विषयसुखमांही
यह विपरीत, संभवे नांही।।’