Atmadharma magazine - Ank 173
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 4 of 25

background image
आत्मधर्म
वर्ष पंदरमुं संपादक फागण
अंक पांचमो रामजी माणेकचंद दोशी २४८४
सोनगढथी दोढ माईल दूर अमरगढमां क्षयनी मोटी
ईस्पिताल छे; त्यांना अनेक जिज्ञासु दरदीओने दर्शन आपवा
माटे पू. गुरुदेव कोई कोईवार त्यां पधारे छे. त्यांथी आव्या
बाद वैराग्यभर्या उद्गारो काढतां एक वार गुरुदेवे कह्युंः
अरे, जुओने! क्षयनी ईस्पितालमां केवा केवा
जुवानजोध माणसो छे! जुवान शरीर होय, वीस–पचीस
वर्षनी उंमर होय, चडतुं लोही होय, छतां क्षणमां क्षय लागु
पडी जाय छे,–त्यां आत्मा शुं करे? शुं आत्माने तेवी भावना
छे?–ना. पण जीवनी इच्छा शरीरमां शुं काम आवे? जीव कां
तो देहनी सामे जोईने दुःखी थाय, ने कां तो आत्मानी सामे
जोईने समाधान करे. अज्ञानी देहनी सामे जोईने तेमां ज
पोतानुं शरण माने छे, एटले देहमां क्षयादि थतां, जाणे के
पोतानुं सर्वस्व चाल्युं जतुं होय–एम हताश अने दुःखी थाय
छे. भाई रे! तुं तो कायमी चिदानंद तत्त्व छो, ने आ देह तो
जड क्षणिक संयोगरूप छे, ए देह तारो नथी, देहमां तारुं शरण
नथी, ए देहनो एक रजकण पण तारी साथे नहि रहे. माटे
देहनी द्रष्टि छोड, ने देहथी भिन्न आत्मानी द्रष्टि कर. देहने
साचववा जतां आत्माना गुणमां क्षय लागु पडी जाय छे–
तेनो विचार कर. देहना क्षयनी चिंता करवा करतां आत्मामां
कर्मोनो क्षय केम थाय, ने गुणोनो क्षय थतो केम अटके–तेनो
विचार कर. अक्षयस्वरूप चैतन्यना लक्षे कर्मोनो क्षय करतां,
तने भाव आरोग्यमय एवा सिद्धपदनी प्राप्ति थशे, ने पछी
ते पदनो कदी क्षय नहि थाय.–माटे एनुं लक्ष करीने एनी ज
भावना कर.