अंक पांचमो रामजी माणेकचंद दोशी २४८४
माटे पू. गुरुदेव कोई कोईवार त्यां पधारे छे. त्यांथी आव्या
बाद वैराग्यभर्या उद्गारो काढतां एक वार गुरुदेवे कह्युंः
वर्षनी उंमर होय, चडतुं लोही होय, छतां क्षणमां क्षय लागु
छे?–ना. पण जीवनी इच्छा शरीरमां शुं काम आवे? जीव कां
तो देहनी सामे जोईने दुःखी थाय, ने कां तो आत्मानी सामे
पोतानुं शरण माने छे, एटले देहमां क्षयादि थतां, जाणे के
पोतानुं सर्वस्व चाल्युं जतुं होय–एम हताश अने दुःखी थाय
जड क्षणिक संयोगरूप छे, ए देह तारो नथी, देहमां तारुं शरण
नथी, ए देहनो एक रजकण पण तारी साथे नहि रहे. माटे
साचववा जतां आत्माना गुणमां क्षय लागु पडी जाय छे–
तेनो विचार कर. देहना क्षयनी चिंता करवा करतां आत्मामां
विचार कर. अक्षयस्वरूप चैतन्यना लक्षे कर्मोनो क्षय करतां,
तने भाव आरोग्यमय एवा सिद्धपदनी प्राप्ति थशे, ने पछी
भावना कर.