Atmadharma magazine - Ank 173
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः ६ः आत्मधर्मः १७३
छे, (३) निर्मळ पर्यायरूप कर्म ते क्षणिक–स्वभाव छे, अने (४) कर्मशक्ति ते त्रिकाळ शुद्ध स्वभावे छे. ते त्रिकाळी
स्वभावना आधारे वर्तमान निर्मळ पर्यायरूप कर्म प्रगटे छे, ने भावकर्म तथा द्रव्यकर्म छूटी जाय छे.
सम्यग्दर्शनादि धर्मरूप निर्मळकर्म क्यांय बहारथी नथी आवतुं पण आत्मामां ज ते–रूप थवानी शक्ति छे;
आत्माना स्वभावनुं अवलंबन करतां आत्मा पोते तेवा निर्मळ कार्यरूपे प्रसिद्ध थाय छे. जुओ, आ आत्मानी
कार्यशक्ति! आत्मानी कार्यशक्ति एवी नथी के जडनुं कांई करे; विकार करे ते पण खरेखर आत्मानी शक्तिनुं कार्य
नथी; पण शुद्ध ज्ञान–दर्शन–आनंद वगेरे भावो आत्मानुं खरुं कर्म छे.
शरीर–कर्म–भाषा वगेरे परमाणुनी अवस्था छे ते परमाणुनुं कार्य छे, केमके ते तेमां तन्मय छे.
राग–द्वेष–पुण्य–पाप वगेरे विकारी भावरूप अवस्था ते मिथ्याद्रष्टिनुं कार्य छे, केमके ते तेमां तन्मय छे.
समकिती तो पोताना सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान–आनंदरूप भावोमां तन्मय थाय छे, अने ते ज आत्मानुं
वास्तविक कार्य छे; तथा ते ज आत्मावडे प्राप्त कराय छे. आत्मा वडे कर्मरूपे प्राप्त करातो एवो जे सिद्धरूप
साधकभाव (–ते ते समये प्रसिद्ध थयेलो साधकभाव) ते ज धर्मात्मानुं कर्म छे; तेना वडे आत्मानी कर्मशक्ति
ओळखाय छे. राग ते खरेखर आत्मानुं स्वभाविक कर्म नथी तेथी तेना वडे कर्मशक्तिवाळो आत्मा
ओळखातो नथी.
शुं आठ जड कर्मो ते आत्मानुं कर्म छे?–ना.
शुं रागादि भावकर्म ते आत्मानुं कर्म छे?–ना; ते रागादि भावो आत्मानी पर्यायमां थता होवा छतां,
आत्मानो स्वभाव तेमां तन्मय थईने परिणमतो नथी माटे स्वभावद्रष्टिमां ते आत्मानुं कर्म नथी.
तो आत्मानुं खरुं कर्म शुं छे?–आत्मा पोते तन्मय थईने जेने प्राप्त करे ते आत्मानुं खरुं कर्म छे. पोतानी
निर्मळ पर्यायोमां तन्मय थईने तेने आत्मा प्राप्त करे छे–ते पर्यायोने पहोंची वळे छे–तेथी ते निर्मळपर्याय ज आत्मानुं
कर्म छे, ने ते ज धर्म छे.
भाई रे! परनां कार्यो तारा आत्मामां नथी; अने राग–द्वेष–मोहनां कार्यो पण तारा स्वभावमां नथी, पण
तारी शक्तिमांथी निर्मळ अवस्थाने प्राप्त कर ते ज तारुं कार्य छे. सम्यग्दर्शनथी मांडीने सिद्धपद सुधीनां पदो प्राप्त
करवानी ताकात तारा आत्मामां छे, ने ते ज तारां कार्य छे; ए सिवाय बहारमां मोटा राजपद के इन्द्रपद वगेरे प्राप्त
थाय ते कांई तारा आत्मानुं कार्य नथी. धर्मी जाणे छे के हुं तो मारा ज्ञान–आनंद स्वभावमय छुं ने तेमांथी प्राप्त थती
अवस्था ज मारुं कार्य छे, ए सिवाय रागादि विचारो पण मारुं कार्य नथी तो पछी ते विकारना फळरूप बाह्य
संयोगोमां तो मारुं कार्य केम होय? मारा स्वभावमांथी सिद्धपद प्रगटे ते ज मारुं प्रिय कार्य छे. ‘कर्तानुं इष्ट ते कर्म’–
धर्मी–कर्तानुं इष्ट तो पोतानी निर्मळ परिणति ज छे; रागादि ते धर्मीनुं इष्ट नथी तेथी ते तेनुं कर्म नथी. श्रद्धामां
परमशुद्ध एवा चिदानंद स्वभावने ज इष्ट करीने तेमांथी सम्यग्दर्शनादि निर्मळदशा प्राप्त करीने सिद्धपद तरफ पगलां
मांडयां छे, ते ज धर्मात्मानुं इष्ट–कार्य छे.
जुओ, आ सिद्धपदनो रस्तो..आ मोक्षनो पंथ! आत्माना स्वभावने इष्ट–वहालो करीने तेना आश्रये
निर्मळपर्यायरूप कार्य करवुं ते सिद्धपदनो रस्तो छे. अहो! आवा आत्माने तो इष्ट करे नहि ने बीजा कार्योने इष्ट माने
ते तो सत्ना रस्ते पण आव्यो नथी, तो तेने सत्ना फळरूप मोक्षनी प्राप्ति तो क्यांथी थशे? रागादि होवा छतां जेणे
अंतर्मुख थईने पोताना चिदानंद स्वभावने ज इष्ट कर्यो छे ते तो सत्ना रस्ते चडेलो साधक छे, अने ते सत्ना
फळरूप सिद्धपदने अल्पकाळमां जरूर पामशे.
अहो! मारुं सम्यग्दर्शनादि निर्मळ कार्य बहारथी लाववुं पडे तेम नथी, मारा आत्मामां ज एवी शक्ति छे के हुं
स्वयं ते कार्यरूप परिणमी जउं.–आवो स्वशक्तिनो निर्णय कर्यो त्यां निजकार्यने माटे बहारना साधनोनी चिंता नथी
रहेती. आ रीते निश्चिंत पुरुषोवडे आ आत्मा सधाय छे; केम के आत्माने साधवा माटे बहारनुं कोई साधन छे ज
नहि, अंतरमां आत्मा पोते ज सर्वसाधनसंपन्न छे, तेथी बाह्यसाधनोनी चिंता व्यर्थ छे. पोते पोताना स्वभावना
चिंतनथी ज आ आत्मा सधाय छे, बहारनी चिंता वडे ते सधातो नथी, माटे निश्चित पुरुषोवडे ज आत्मा सधाय छे.
निमित्त वगेरे बाह्यसाधनोनी