Atmadharma magazine - Ank 173
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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फागणः २४८४ः ७ः
चिंता छोडीने, अंतर्मुख थईने आत्मस्वभावमां एकतान थतां, आत्मा पोते पोताने साधे छे. जेना चिंतनमां एकला
ज्ञानानंदमूर्ति आत्मा सिवाय अन्य कोई नथी एवा निश्चिंत पुरुषोवडे ज भगवान आत्मा साध्य छे, तेओ ज तेने
अनुभवे छे. पोतानी कर्मशक्तिथी ज आत्मा पोताना कार्यने साधे छे,–प्राप्त करे छे.
आत्मामां कर्मशक्ति त्रिकाळ छे, एटले कर्म विनानो (अर्थात् पोताना कार्य विनानो) ते कदी न होय. जड कर्म
विनानो आत्मा त्रिकाळ छे, पण पोताना भावरूप कर्म वगरनो आत्मा कदी न होय. हा, अज्ञानदशामां ते विपरीत
(रागद्वेषमोहादि) कर्मरूपे परिणमे छे, ने स्वभावनुं भान थतां सम्यग्दर्शनादि निर्मळ कार्यरूपे परिणमे छे. पण अहीं
एटली विशेषता छे के जेने पोतानी स्वभावशक्तिनुं भान थयुं छे एवा साधक तो स्वभावना अवलंबने निर्मळ
कर्मरूपे ज परिणमे छे; मलिन कार्यने ते पोताना स्वभावमां स्वीकारता नथी केम के ते मलिन भाव स्वभावना आधारे
थयेला नथी, ने स्वभाव साथे तेनी एकता नथी. शुद्धस्वभावना आधारे तो निर्मळ कार्य ज थाय छे अने तेने ज
खरेखर आत्मानुं कार्य स्वीकारवामां आवे छे.
जुओ, विकार केम टळे ए वात पण आमां आवी जाय छे. हुं विकार टाळुं–एम विकारने टाळवानी
चिंता करवाथी ते टळतो नथी, विकार सामे जोईने इच्छा करे के मारे आ विकारने टाळवो छे, तो ते इच्छा
पोते पण विकार छे, ते इच्छाथी कांई विकार टळी जतो नथी, परंतु शुद्ध ज्ञानानंद स्वभाव
परमपारिणामिकभावे सदाय विकार रहित ज छे, ते स्वभाव सन्मुख थईने तेनी साथे ज्यां एकता करी त्यां
पर्याय पोते निर्विकाररूपे परिणमी, ने विकार छूटी गयो. गुणी साथे एकता करतां गुणनुं निर्मळकार्य प्रगटे ने
विकार टळे.
औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक अने पंचम–पारिणामिक ए पांच, जीवना असाधारणभावो छे.
द्रव्य–गुण त्रिकाळ पारिणामिकभावे शुद्ध छे, तेमां कदी विकार नथी. तेनो आश्रय करतां औपशमिक–क्षायिकादि
निर्मळभावो प्रगटी जाय छे. औदयिकभाव परना आश्रये थाय छे, पण अंतर्मुखस्वभावना आश्रये तेनी उत्पत्ति थती
नथी तेथी ते आत्माना स्वभावनुं कार्य नथी. आत्मानी बधी शक्तिओ पारिणामिकभावे छे, तेने परनी अपेक्षा नथी.
जेम आत्मामां शुद्ध आनंदस्वभाव तथा ज्ञानस्वभाव पारिणामिकभावे त्रिकाळ स्वतःसिद्ध छे तेम कर्तास्वभाव–
कर्मस्वभाव–करणस्वभाव–प्रभुतास्वभाव वगेरे पण पारिणामिकभावे त्रिकाळ स्वतःसिद्ध छे; अंतर्मुख थईने तेनुं
भान करतां ज तेना आधारे निर्मळ कार्य प्रगटी जाय छे. परमपारिणामिकभावने आश्रये जे कार्य प्रगटयुं ते पण एक
अपेक्षाए तो (–परनी अपेक्षा न ल्यो तो) पारिणामिकभावे ज छे, अने कर्मना क्षय वगेरेनी अपेक्षा लईने तेने
क्षायिक वगेरे कहेवामां आवे छे.
परमपारिणामिकभावस्वरूप आत्मा ‘कारण शुद्ध जीव’ छे, तेमां अनंतशक्तिओ छे, तेनुं आ वर्णन छे.
आत्मानी बधी शक्तिओ एवा स्वभाववाळी छे के तेना आश्रये निर्मळता ज प्रगटे; एक पण शक्ति एवा
स्वभाववाळी नथी के जेना आश्रये विकार थाय. जो स्वभावना आधारे विकार थाय तो तो ते टळे कई रीते?
स्वभावना आधारे जो विकार थाय तो तो विकार पोते ज स्वभाव थई गयो, तेथी ते टळी ज शके नहि. परंतु
स्वभावनो आश्रय करतां तो विकार टळी जाय छे. माटे विकारने उत्पन्न करे एवो कोई स्वभाव आत्मामां छे ज नहि.
आम अंतरमां स्वभाव अने विकारनी भिन्नतानो निर्णय करीने, स्वभाव सन्मुख थतां विकार टळी जाय छे, ने
निर्मळता प्रगट थाय छे.–तेनुं नाम धर्म छे.
जेम आंबाना झाडमां तो केरी ज पाके एवो स्वभाव छे, आंबाना झाडमां कांई लींबोडी न पाके; तेम आ
आत्मा चैतन्य–आंबो छे, तेमां रागादि विकार पाके एवो स्वभाव नथी, तेना आधारे तो निर्मळता ज पाके एवो
स्वभाव छे. जो चैतन्यमां सिद्धपदनी शक्ति न होय तो सिद्धदशा पाकशे क्यांथी? केरीना गोटलामां आंबा थवाना
बीज पडयां छे तेमांथी आंबा पाके छे, कांई लीमडामां के बोरडीमां आंबा न पाके. तेम चैतन्यमां ज केवळज्ञान अने
सिद्धपदनी ताकात पडी छे तेमांथी ज ते प्रगटे छे, शरीरमांथी के रागमांथी ते नथी प्रगटतुं. आत्मामां
परमपारिणामिकभावे त्रिकाळ प्रभुता छे, तेना आश्रये प्रभुता थई जाय छे. आत्मानी शक्तिओ एवी स्वतंत्र छे के
पोतानी प्रभुतारूप कार्य माटे तेने कोई बीजानो