व्यवहारनो जराक विकल्प ऊठे तो तेटलो पण अयथाचार छे, आ मुनिराज स्वरूपथी बहार
नीकळता नहि होवाथी ‘अयथाचार रहित’ छे, ने नित्य ज्ञानी छे. आवा साक्षात् श्रमणने
मोक्षतत्त्व जाणवुं.
आनंदनी मोजपूर्वक पूर्वनां समस्त कर्मोनुं फळ तेणे नष्ट कर्युं छे ने नवां कर्मो जरा पण बांधता नथी, तेथी तेओ फरीने
प्राणधारणरूप दीनताने पामता नथी, आ रीते कर्मोथी मुक्त थवानी क्रियारूपे ज परिणमी रह्या होवाथी ते मुनिने
मोक्षतत्त्व जाणवुं.
भावलिंगी श्रमणराजने मोक्षतत्त्व कह्या.
तजी संग अंतर्बाह्यने,
आसक्त नहि विषयो विषे जे,
‘शुद्ध’ भाख्या तेमने. २७३
साधननुं सर्वतः संक्षेपथी कथन करतां आ सूत्र कहे छे के स्वरूपगुप्त प्रशांत परिणतिवाळा सकळ महिमावंत भगवंत
शुद्धोपयोगी संतो ज मोक्षनुं साधनतत्त्व छे, केमके कर्मबंधनने तोडीने मुक्त थवा माटेनो अति उग्र प्रयत्न तेओ करी
रह्या छे. अतिउग्र प्रयत्न कह्यो ते कयो?–के अंतरमां शुद्धोपयोग वर्ते छे ते ज कर्मने छेदनार अतिउग्र प्रयत्न छे.
शुद्धोपयोग सिवाय बीजो कोई खरेखर मोक्षनो प्रयत्न के मोक्षनुं साधन नथी.–एम प्रसिद्ध करीने आ त्रीजुं रत्न
अर्हंतदेवना शासनने प्रकाशे छे.
भणीने भले मोटा मोटा पंडित नाम धरावे पण अंतरमां ज्ञातातत्त्व कोण छे ने ज्ञेयतत्त्व शुं छे? तेनो जेने निर्णय
नथी ते पंडिताईमां प्रवीण नथी पण मूर्ख छे. जेणे अंतर्मुख थईने ज्ञाता अने ज्ञेय तत्त्वोने अनेकान्त वडे जाणीने
तेमनो बराबर निर्णय कर्यो छे ते भले शास्त्रो न पढयो होय तो पण ते पंडिताईमां प्रवीण छे. आवा पांडित्यमां
प्रवीण शुद्धोपयोगी संतो पोते ज मोक्षना साधन छे.
रीते समस्त अंतरंग तथा बहिरंग संगतिना परित्यागवडे ते संतोए अंतरमां चकचकित अनंत शक्तिवाळा
चैतन्यतत्त्वना स्वरूपने विविक्त कर्युं छे, एटले के मोहादि परभावोथी चैतन्यना निज स्वरूपने जुदुं पाडी दीधुं