Atmadharma magazine - Ank 174
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः १०ः आत्मधर्मः १७४
छे; अने ते मोक्षसाधक संतोनी अंर्तपरिणति चिदानंद स्वरूपमां गुप्त थई गई छे, स्वरूपमां एवी जामी गई छे के
जाणे सुषुप्त होय...जेम घोर निद्रामां सूतेलाने आसपासना जगतनुं भान नथी रहेतुं, तेम चैतन्यनी अत्यंत शांतिमां
ठरी गयेला मुनिवरोने जगतना बाह्यविषयोमां जरा पण आसक्ति थती नथी, अंर्तस्वरूपनी लीनतामांथी बहार
नीकळवुं जराय गोठतुं नथी; आसपास वनना वाघ ने सिंह त्राड पाडता होय तो पण तेनाथी जराय डरता नथी के
स्वरूपनी स्थिरताथी जराय डगता नथी.–अहा, ए दशानी भावना भावतां श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के,
एकाकी विचरतो वळी स्मशानमां
वळी पर्वतमां सिंह वाघ संयोग जो..
अडोल आसन ने मनमां नहि क्षोभता,
परम मित्रनो जाणे पाम्या योग जो..
अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे?
अहा! आवा स्वद्रव्यमां लीन शुद्धोपयोगी संत भगवंतो, तेओ पोते ज मोक्षना साधन छे, तेओ पोते ज
साक्षात् जीवंत मोक्षमार्ग छे.
जुओ, उत्कृष्ट वात छे एटले साक्षात् शुद्धोपयोगी संतने मोक्षना साधन तरीके वर्णव्या. छठ्ठे गुणस्थाने
शुभोपयोगमां वर्तता मुनिओने पण अंतरमां ते वखते वर्तती सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्ध परिणति (वीतराग
परिणति) ते ज मोक्षमार्ग छे, तेनो उपचार करीने शुभने व्यवहार साधन कह्युं छे. खरेखर तो जेटलो राग छे ते
मोक्षना साधनथी विपक्ष ज छे.
शुद्ध रत्नत्रय तो मोक्षसाधन ज छे, ते बंधसाधन नथी; अने राग तो
बंधसाधन ज छे, ते मोक्षसाधन नथी; आ रीते बंधमोक्षना कारणरूप भावोने भिन्न भिन्न स्वरूपे
जे नथी ओळखतो तेने तो मुनिदशानी पण ओळखाण होती नथी. मुनि तो शुद्ध परिणतिवाळा
होय छे, शुद्धरत्नत्रयना निर्विकल्प आनंदना पीणां पीने मस्त थया छे, ने शुद्धोपयोगवडे मोक्षने
साधे छे. तेमनी शुद्ध परिणति ज मोक्षनुं साधन छे, बीजुं कोई मोक्षनुं साधन नथी.–एम आ रत्न
प्रकाशे छे.
आ रीते अर्हंतदेवना समग्र शासनमां कहेला मोक्षना साधनने आ सूत्र संक्षेपथी सर्वतः
प्रकाशे छे, एटले के आ सूत्रमां मोक्षना साधननुं जे स्वरूप कह्युं तेने अनुसरीने समग्र शास्त्रोनुं
तात्पर्य समजी लेवुं, आनाथी विरुद्ध तात्पर्य क्यांय पण न समजवुं.
अहा! आवा शुद्धोपयोगी संतमुनिवरो सकळ महिमानुं स्थान छे; सर्व मनोरथना स्थान तरीके तेओ
अभिनंदनीय छे. मुमुक्षुना सर्व मनोरथनी सिद्धि आवा शुद्धोपयोगवडे थाय छे, तेथी तेने
अभिनंदता थका अति आसन्नभव्य महामुमुक्षु आचार्यदेव कहे छे के हुं आवा शुद्धोपयोगने
अभेदपणे भावीने नमस्कार करुं छुं, एटले के हुं ते–रूपे परिणमुं छुं.
आ कहेवानो विकल्प ऊठयो ते तो
जुदी वात छे (गौण छे) पण ते वखते आचार्यदेवनी परिणति ते प्रकारनी शुद्धतारूपे परिणमी ज रही छे, एटले के
जेवुं ‘वाचक’ परिणमे छे तेवुं ज अंदर ‘वाच्य’ पण परिणमी ज रह्युं छे, आ रीते संधिबद्ध रचना छे,–वाचक–
वाच्यनी संधि तूटती नथी.
आ रीते पंचरत्नमांथी पहेला रत्नमां संसारतत्त्व बताव्युं; बीजा रत्नमां मोक्षतत्त्व बताव्युं; ने आ त्रीजा
रत्नमां मोक्षनुं साधनतत्त्व बताव्युं; हवे चोथा रत्नमां ते मोक्षना साधनने सर्व मनोरथना स्थान तरीके आचार्यदेव
अभिनंदे छेः
* * *
चोथुं रत्न
सर्व मनोरथना स्थानभूत एवा मोक्षतत्त्वना साधनतत्त्वने अभिनंदे छे–
रे! शुद्धने श्रामण्य भाख्युं, ज्ञान दर्शनशुद्धने,
छे शुद्धने निर्वाण, शुद्ध ज सिद्ध, प्रणमुं तेहने. २७४