“
प्रगट हो कि मिथ्यात्व ही आस्रवबंध है और मिथ्यात्व का अभाव अर्थात् सम्यक्त्व संवर निजरा मोक्ष
है
” .. आ रीते जे मिथ्याद्रष्टि छे ते संसारतत्त्व ज छे.
भले राजपाट छोडी, राणीओ छोडी, वैराग्यथी पंच महाव्रतधारी द्रव्यलिंगी दिगंबर साधु थयो होय तो पण,
जो मिथ्याश्रद्धाने नथी छोडतो तो तेणे संसार जरा पण छोडयो नथी, ते संसारतत्त्वमां ज ऊभो छे–एम निःशंक
जाणवुं. (पहेला रत्ननो प्रकाश अहीं पूरो थयो.)
* * *
बीजुं रत्न
हवे आ बीजुं रत्न मोक्षतत्त्वने प्रकाशे छे–
अयथाचरणहीन,
सूत्र–अर्थसुनिश्चयी उपशांत जे,
ते पूर्ण साधु अफळ आ
संसारमां चिर नहि रहे. २७२.
अप्रतिहतपणे चैतन्य स्वरूपमां जेओ लीन थया छे एवा निर्विकल्प मुनिभगवंतोने अहीं मोक्षतत्त्व कह्युं छे.
संपूर्ण श्रामण्यवाळा साक्षात् श्रमणने मोक्षतत्त्व जाणवुं.–केवा छे ते श्रमण? प्रथम तो त्रण लोकनी कलगी
समान निर्मळ विवेकरूपी दीवीनो प्रकाश जेमने प्रगटी गयो छे तेथी यथास्थित पदार्थोनो निश्चय थयो छे नेते
संबंधी उत्सुकता निवर्तावी छे. तत्त्वना निर्णय संबंधी आत्मानी भूल ते संसार छे. ते भूल भांगवामां आत्मा
पोते समर्थ छे. प्रथम तो सम्यग्ज्ञानरूप दीपक वडे जेणे ते भूलने भांगी नांखी छे एटले संसारना मूळने छेदी
नांख्युं छे; अने पदार्थनो निर्णय करवा उपरांत स्वरूपमां मग्न थईने उपशांत थई गया छे–एवा भावलिंगी
संत ते मोक्षतत्त्व छे, हवे लांबो काळ तेओ आ संसारमां नहि रहे, अल्प ज काळमां तेओ मोक्ष पामशे. जेमणे
पोताना आत्मामां सम्यग्ज्ञानरूपी दीवो प्रगट करीने, यथार्थ तत्त्वोनुं निश्चय श्रद्धान कर्युं छे तथा चिदानंद
स्वरूपमां लीन थईने जे सदा उपशांतरूप वर्ते छे– निर्विकल्प आनंदसरोवरमां निरंतर हंसनी जेम
केली करे छे–तेमांथी बहार आवता ज नथी एवा साक्षात् श्रमण–के जेमने अहीं मोक्षतत्त्व कहेल छे–तेओ
पूर्वनां सकळ कर्मनां फळने लीलामात्रथी नष्ट करे छे एटले के तेमां जरा पण जोडाता नथी अने
नवां कर्मफळने जराय नीपजावता नथी, तेथी तेओ फरीने संसारमां जन्म धारण करता नथी.
जुओ तो खरा! आमां कर्म प्रमाणे विकार थवानी वात क्यां रही?
कर्म प्रमाणे (DEGREE TO DEGREE) विकार थवानुं जे माने तेने तो महाविपरीत श्रद्धा छे, ते तो संसारमां
डुबेला छे; परंतु कर्म प्रमाणे विकार न थाय, विकार पोतानी भूलथी थाय–एम माने, पंचमहाव्रत पाळे, पण अंतरमां
रागथी पार चैतन्यना भूतार्थस्वरूपने जो न अनुभवे तो ते पण संसारतत्त्व ज छे. ए संसारतत्त्वनी वात तो पहेली
गाथामां गई, आमां हवे मोक्षतत्त्वनी वात छे.
अहा! स्वरूपमां ठरी गयेला मुनिने मोक्षतत्त्व ज कही दीधुं. मोक्षने पामवा माटे जे तद्न निकट वर्ते छे एवा
मुनिवरो धर्ममां प्रधान छे ने तेमने, अहीं मोक्षतत्त्व कह्या छे, केमके तेओ स्वरूपमां एवा ठर्यां छे के श्रेणी मांडीने
केवळज्ञान लईने मोक्ष ज पामशे, ने फरीने संसारमां प्राण धारण नहि करे.
अरे, मिथ्यात्वमां रहेलो द्रव्यलिंगी, मुनि पण दुःखी ज छे; दुःखी कहो के संसारतत्त्व कहो; तत्त्वनो यथार्थ
निश्चय नहि होवाथी ते अविवेकी छे. विवेकचक्षु तेने उघडयां नथी. अहा, संसारना घोर दुःखथी आत्मरक्षा
सम्यग्दर्शन –ज्ञान–चारित्रवडे थाय छे; एवा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगट करीने जेओ स्वरूपमां
ठर्या छे..एवा ठर्या छे के तेमांथी बहार नीकळवाना आळसु छे–तेमां ज मग्न रहे छे. प्रशांत थईने
स्वरूपमां जामी गयां छे, तेथी अयथाचारथी एटले के रागादिथी रहित छे. वीतराग थईने शांत
निर्विकल्प रसने झीले छे. आनंदना अनुभवमां झूले छे, ज्यां व्यवहार रत्नत्रयनो विकल्प पण
नथी, निर्विकल्प थईने आनंद