Atmadharma magazine - Ank 174
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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चैत्रः २४८४ः ७ः
अहीं संसारतत्त्वनुं उत्कृष्ट स्वरूप बताववुं छे एटले अज्ञानी द्रव्यलिंगी श्रमणनी वात मुख्य लीधी छे. कोई
जीव जिनमतमां कहेलुं बाह्यद्रव्यलिंग धारण करीने भले द्रव्यश्रमण थयो होय छतां जो यथार्थ तत्त्वोने श्रद्धतो नथी ने
विपरीत रूपे तत्त्वोने श्रद्धे छे तो ते श्रमणाभास मिथ्याद्रष्टि अज्ञानी संसारतत्त्व ज छे; द्रव्यलिंग धारण करवाथी जरा
पण मोक्षमार्ग तेने थई गयो–एम नथी, हजी पण ते संसारतत्त्व ज छे एम जाणवुं.
मारा आत्मानो स्वभाव तो चैतन्य सामर्थ्यमय छे;
रागादि विभावो मारा स्वभावथी विपरीत छे;
अने देहादि संयोग, तो माराथी अत्यंत भिन्न छे.
–आम यथार्थपणे जे जाणतो नथी. देहादिनी क्रियाओ हुं करुं एम माने छे, रागथी मने धर्मनो लाभ थशे–
एम माने छे; आ रीते तत्त्वोने विपरीतपणे श्रद्धे छे तेओ सतत महामोहरूप मेलने एकठो करे छे, तेमनुं मन
मिथ्यात्वरूप महामळथी मलिन छे, तेथी तेओ नित्य अज्ञानी छे; “नित्य अज्ञानी” कह्या, एटले के आवी विपरीत
श्रद्धावाळा जीवने व्यवहारनो शुभ राग करतां करतां क्यारेक–घणा काळे पण–सम्यग्ज्ञान प्रगटी जशे एम नथी, ज्यां
सुधी पोताना अविवेकने लीधे विपरीत श्रद्धा करशे त्यांसुधी निरंतर ते अज्ञानी ज रहेशे.
आवो अज्ञानी जीव भले कदाच द्रव्यलिंगी थईने जिनमार्गमां रह्यो होय, एटले के व्यवहारथी सर्वज्ञदेवने ज
मानतो होय ने बीजाने न मानतो होय, पंचमहाव्रतादि पाळतो होय, तो पण खरुं श्रामण्यपणुं ते पाम्यो नहि होवाथी
ते श्रमणाभास ज छे. आ सूत्र उपरथी एम समजी लेवुं के जे कोई जीवो विपरीत तत्त्वोनी श्रद्धा करे–(जडनी क्रियाने
आत्मानी माने के रागना भावने धर्म माने) ते बधाय श्रमण नथी पण श्रमणाभास ज छे, ने ऊंधी श्रद्धाने लीधे
तेओ संसारमार्गमां ज स्थित छे.
जुओ, आ श्रमणाभासने साचा देवगुरुशास्त्रनी श्रद्धानो शुभराग छे, ते शुभराग होवा
छतां तेने संसारमार्गमां ज स्थित कह्यो छे. एटले के शुभराग ते मोक्षमार्ग नथी–एम आ सूत्र
प्रसिद्ध करे छे.
जुओ, आ सूत्ररत्न अर्हंतदेवना समग्र शासनने संक्षेपथी प्रकाशे छे. अंदरमां संसारतत्त्व ज होवा छतां,
बहारथी मोक्षमार्गनो भेष पहेरीने मुनि जेवो लागतो होय तो आ सूत्र “ते संसारतत्त्व ज छे” एम प्रसिद्ध करीने
तेने खुल्लो पाडे छे.
जेम चोर–लूंटारा खोटो वेष पहेरीने लोकोने छेतरे छे, जाणे मोटो साहुकार होय–एम बनावटी वेष
पहेरीने लोकोने छेतरे छे; तेम, अहीं आचार्यदेव कहे छे के बहारथी जिनमार्गनो भेख लईने एटले के दिगंबर
द्रव्यलिंगी साधु थईने पण अंदरमां जेओ रागादि पुण्यने धर्म मानीने विपरीत तत्त्वोनी श्रद्धा करता थका
अज्ञानीपणे वर्ते छे तेओ श्रमणाभास छे; खरेखर तेओ श्रमण नथी पण श्रमणनो मात्र बाह्य भेख लीधो छे;
एवा श्रमणाभासने पण संसारतत्त्व ज जाणवुं; ते पण अज्ञानने लीधे अनंत दुःखमय संसारमां ज परिभ्रमण
करे छे.
जेम कडवुं करियातुं साकरनी कोथळीमां भरे तेथी कांई ते करियातुं मटीने साकर न थई
जाय तेम मिथ्याद्रष्टि जीव द्रव्यलिंग धारण करे तेथी कांई ते संसारतत्त्व मटीने मोक्षमार्गी न
थई जाय.
द्रव्यलिंगी साधु थईने अहिंसादि पंचमहाव्रत पाळतो होवा छतां, ते विपरीत श्रद्धावाळा जीवनुं चित्त
महा मोहमळथी मलिन छे, अने तेथी तेओ दीनपणे फरीफरीने देह धारण करता थाक संसारमां ज रखडे छे, माटे
तेने संसारतत्त्व ज जाणवुं. “पंथे चालतां अनंतकाळ वीत्यो छतां हजी आरो न आव्यो” एम कोई कहे, तो
तेनो अर्थ ए थयो के एनो पंथ ज खोटो छे. साचा पंथे चाले ने अल्पकाळमां भवभ्रमणनो आरो न आवे एम
बने नहि.
संसारतत्त्व ते पांच भावोमांथी कया भावमां आवे? संसारतत्त्व ते औदयिक भावमां आवे छे. अने नव
तत्त्वोमांथी आस्रव ने बंधतत्त्व ते संसारतत्त्व छे. अहीं तो कहे छे के मिथ्याद्रष्टि श्रमणाभासने संसारतत्त्व जाणवुं,
एटले के मिथ्यात्व ते ज मूळ संसार छे. नाटक–समयसारमां पं. बनारसीदासजी पण स्पष्ट कहे