Atmadharma magazine - Ank 174
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः १८ः आत्मधर्मः१७४
पण आत्मा भावक थईने पोताना स्वभावमांथी प्राप्त थता निर्मळ भावने ज भावे–एवो तेनो स्वभाव छे. आवा
स्वभावनी द्रष्टिमां धर्मात्मा निर्मळ भावरूपे परिणमीने तेनो ज कर्ता थाय छे.
अहो! आत्मस्वभावनो अनंत गंभीर महिमा आचार्यदेवे आ समयसारमां भर्यो छे...आ शक्तिओमां घणी
गंभीरता छे; अंदर ऊतरीने आत्मा साथे मेळवीने समजे तेने महिमानी खबर पडे. आवी शक्तिओवाळा
आत्मस्वभावने कबूलतां साधक पर्याय तो थई ज जाय छे. ज्यां आत्मस्वभावने कबूल्यो त्यां ते स्वभाव पोते
साधकपर्यायनो कर्ता थाय छे, ने त्यां विकारनुं कर्तापणुं रहेतुं नथी. साधक पोताना अखंड आत्मस्वभावने साथे ने
साथे राखीने तेमां ज एकत्वपणे परिणमन करे छे एटले तेने निर्मळ–निर्मळ पर्यायो ज थाय छे. आ अंतद्रष्टिनो
विषय छे. अने आवी अंतद्रष्टिथी ज धर्म थाय छे.
आत्मा पोते पोताना स्वभावने जाणे ते मोक्षनुं कारण छे...अने आत्मा आत्माने न जाणी शके ए मान्यता
संसारनुं कारण छे. धर्मी जाणे छे के स्वपरने जाणवारूप सम्यग्ज्ञानपणे परिणमुं ए ज मारुं कार्य छे. अज्ञानपणे
परिणमवानो मारो स्वभाव नथी. आवा शुद्ध आत्मस्वभावने जाणीने तेमां ज्ञानने एकाग्र कर्युं त्यां आखुं जैनशासन
आवी गयुं. आत्मा ज्यां पोताना स्वभावरूपे परिणम्यो त्यां मोह–राग–द्वेषादि वेरीओ जीताई गया, एटले तेमां
जैनशासन आवी गयुं.
आ भगवान आत्मा वनगोचर के विकल्पगोचर नथी पण ज्ञानगोचर छे, अने ते पण अंतर्मुख थयेला
ज्ञान वडे ज गोचर छे. ज्ञानने अंतर्मुख करीने पोताना आत्माने लक्षमां लेवो ते जैनधर्म छे. आ रीत सिवाय
बीजी कोई रीते जैनधर्म थतो नथी; अने आवा जैन धर्म विना कदी कोईने क्यांय कोई रीते मुक्ति थती नथी.
‘थनार ते कर्ता’ अने जे थाय ते तेनुं कर्म. मारी जे पर्याय थाय छे ते रूपे थनार मारुं द्रव्य छे–एम
नक्की करनारनी द्रष्टि द्रव्य उपर जाय छे, अने द्रव्यमां तो विकार नथी एटले द्रव्य विकाररूप थईने विकारनुं कर्ता
थाय एम बनतुं नथी. माटे द्रव्यद्रष्टिवाळो जीव विकारनो कर्ता थतो नथी, ते तो निर्मळ पर्यायरूप थईने तेनो ज
कर्ता थाय छे. जेम सोनुं कर्ता थईने सोनानी अवस्थारूपे थाय, पण सोनुं कर्ता थईने लोढानी अवस्थारूप न
थाय; तेम आत्मानो एवो स्वभाव छे के ते कर्ता थईने पोतानी स्वभावदशाने करे; पण ते कर्ता थईने विकारने
करे एवो आत्मानो स्वभाव नथी. कर्तानुं इष्ट ते कर्म छे; कर्ता एवा आत्मामां रागादि विकारीभावो ते इष्ट
नथी, ते तो तेनाथी विपरीत छे, माटे ते खरेखर कर्तानुं कर्म नथी. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप निर्मळपर्यायो
ज आत्मस्वभाव साथे एकमेक थती होवाथी आत्मानुं इष्ट छे, ने ते ज कर्तानुं कर्म छे. आवा कार्यनो कर्ता
थवानो आत्मानो स्वभाव छे.
‘स्वाधीनपणे परिणमे ते कर्ता.’ आत्मानुं स्वाधीन परिणमन तो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे, ने विकार तो
पराधीन परिणमन छे. स्वने आधीन थईने स्वाधीनपणे पोताना सम्यग्दर्शनादिने करे एवी कर्तृत्वशक्तिवाळो आत्मा
छे. आवा ‘कर्ता’ ने ज्यां लक्षमां लीधो त्यां साधक–पर्याय सम्यग्दर्शनादिनी सिद्धि थई; अने ते सिद्धरूप भावना
कर्तापणे आत्मा परिणम्यो..एटले के ते धर्मी थयो.
जुओ, धर्म केम थाय तेनी आ रीत कहेवाय छे. धर्मनी आ रीत समजतां साथे ऊंची जातना पुण्य पण
बंधाय छे ने तेना फळमां स्वर्गादिनो संयोग मळे छे. पण धर्मनी रुचिवाळा जीवने ते पुण्यनी के संयोगनी रुचि
होती नथी. जेने पुण्यनी के संयोगनी रुचि–होंस–उत्साह छे तेने धर्मनी रुचि–होंस के उत्साह नथी. जेने पुण्यनी
होंस होय ते पुण्यरहित आत्मा तरफ केम वळे? जेने संयोगनी होंस होय ते असंयोगी आत्मा तरफ केम वळे?
जेने चैतन्यस्वभावनी ज होंस छे ते ज चैतन्यस्वभाव तरफ वळीने मुक्ति साधे छे. अने जेने संयोगनी के
रागनी होंस छे ते असंयोगी–वीतरागी चैतन्यस्वभावनो अनादर करीने संसारनी चारे दुर्गतिमां रखडे छे.
मारी बधी पर्यायोरूपे थनार मारुं शुद्ध द्रव्य ज छे, कोई बीजुं नथी,–बस! ज्यांं! आवो निर्णय कर्यो त्यां बधी
पर्यायोमां शुद्ध द्रव्यनुं ज अवलंबन रह्युं. एटले बधी पयार्यो निर्मळ ज थवा मांडी. आवो