स्वभावनी द्रष्टिमां धर्मात्मा निर्मळ भावरूपे परिणमीने तेनो ज कर्ता थाय छे.
आत्मस्वभावने कबूलतां साधक पर्याय तो थई ज जाय छे. ज्यां आत्मस्वभावने कबूल्यो त्यां ते स्वभाव पोते
साधकपर्यायनो कर्ता थाय छे, ने त्यां विकारनुं कर्तापणुं रहेतुं नथी. साधक पोताना अखंड आत्मस्वभावने साथे ने
साथे राखीने तेमां ज एकत्वपणे परिणमन करे छे एटले तेने निर्मळ–निर्मळ पर्यायो ज थाय छे. आ अंतद्रष्टिनो
विषय छे. अने आवी अंतद्रष्टिथी ज धर्म थाय छे.
परिणमवानो मारो स्वभाव नथी. आवा शुद्ध आत्मस्वभावने जाणीने तेमां ज्ञानने एकाग्र कर्युं त्यां आखुं जैनशासन
आवी गयुं. आत्मा ज्यां पोताना स्वभावरूपे परिणम्यो त्यां मोह–राग–द्वेषादि वेरीओ जीताई गया, एटले तेमां
जैनशासन आवी गयुं.
बीजी कोई रीते जैनधर्म थतो नथी; अने आवा जैन धर्म विना कदी कोईने क्यांय कोई रीते मुक्ति थती नथी.
थाय एम बनतुं नथी. माटे द्रव्यद्रष्टिवाळो जीव विकारनो कर्ता थतो नथी, ते तो निर्मळ पर्यायरूप थईने तेनो ज
कर्ता थाय छे. जेम सोनुं कर्ता थईने सोनानी अवस्थारूपे थाय, पण सोनुं कर्ता थईने लोढानी अवस्थारूप न
थाय; तेम आत्मानो एवो स्वभाव छे के ते कर्ता थईने पोतानी स्वभावदशाने करे; पण ते कर्ता थईने विकारने
करे एवो आत्मानो स्वभाव नथी. कर्तानुं इष्ट ते कर्म छे; कर्ता एवा आत्मामां रागादि विकारीभावो ते इष्ट
नथी, ते तो तेनाथी विपरीत छे, माटे ते खरेखर कर्तानुं कर्म नथी. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप निर्मळपर्यायो
ज आत्मस्वभाव साथे एकमेक थती होवाथी आत्मानुं इष्ट छे, ने ते ज कर्तानुं कर्म छे. आवा कार्यनो कर्ता
थवानो आत्मानो स्वभाव छे.
छे. आवा ‘कर्ता’ ने ज्यां लक्षमां लीधो त्यां साधक–पर्याय सम्यग्दर्शनादिनी सिद्धि थई; अने ते सिद्धरूप भावना
कर्तापणे आत्मा परिणम्यो..एटले के ते धर्मी थयो.
होती नथी. जेने पुण्यनी के संयोगनी रुचि–होंस–उत्साह छे तेने धर्मनी रुचि–होंस के उत्साह नथी. जेने पुण्यनी
होंस होय ते पुण्यरहित आत्मा तरफ केम वळे? जेने संयोगनी होंस होय ते असंयोगी आत्मा तरफ केम वळे?
जेने चैतन्यस्वभावनी ज होंस छे ते ज चैतन्यस्वभाव तरफ वळीने मुक्ति साधे छे. अने जेने संयोगनी के
रागनी होंस छे ते असंयोगी–वीतरागी चैतन्यस्वभावनो अनादर करीने संसारनी चारे दुर्गतिमां रखडे छे.