Atmadharma magazine - Ank 174
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः २०ः आत्मधर्मः १७४
– परम शांति दातारी –
अध्यात्म भावना
भगवानश्री पूज्य पादस्वामी रचित ‘समाधिशतक’
उपर परम पूज्य सद्गुरुदेवश्री कानजीस्वामीना अध्यात्मभावना
–भरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार.
(वीर सं. २४८२ जेठ सुद छठ्ठ)
आत्माना ज्ञानानंदस्वभावनो निर्णय थतां अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद आवे, अने इन्द्रिय विषयो निरस
लागे. इन्द्रियना विषयो अजीव छे ने हुं तो ज्ञानस्वरूप आत्मा छुं–एम ज्यांसुधी नथी जाणतो त्यांसुधी जीव
अज्ञानपणे बाह्य विषयोने सुंदर मानी रह्यो छे. शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श इत्यादि बाह्य विषयो ज्ञानथी भिन्न ज्ञेयो
छे, हुं तो उपयोगस्वरूप छुं.–एवुं भान थतां बाह्य विषयोनी वृत्ति काळा विषधरनी माफक दुःखदायक लागे छे;
चैतन्यना रस पासे विषयोनो रस छूटी गयो छे. पहेलां आवा आत्मानो निर्णय करवो जोईए. आत्मानो निर्णय
करतां अतीन्द्रिय स्वाद आवे. पछी जे पुण्य–पापनी वृत्ति आवे ने बाह्य विषयोमां वलण जाय, तेमां सुखबुद्धि धर्मीने
थती नथी; विषयोनो रस ऊडी जाय छे, ते तरफनुं जोर तूटी जाय छे. विषयो तरफना राग–द्वेषनो एकांत स्वाद
अज्ञानदशामां लेतो, तेने बदले हवे ज्ञानदशामां राग वगरना आनंदनो स्वाद आव्यो, ने विषयोना स्वाद झेर जेवा
लाग्या एटले तेनो रस छूटी गयो. आत्माना अतीन्द्रिय आनंद पासे इन्द्रो अने चक्रवर्तीओना वैभवने पण ज्ञानी
तूच्छ समजे छे.
भगवान! एक वार निर्णय तो कर के हुं आनंदकंद आत्मा छुं ने विषयो माराथी पर छे.–आम
उपयोगमां निर्णय करतां चैतन्यना अतीन्द्रिय अमृतनो स्वाद आवे छे. ते स्वादना आनंद आगळ इन्द्रना
वैभवो पण तूच्छ भासे छे; इन्द्रियना विषयो लूखा लागे छे. इन्द्रियविषयो तरफ वलण जाय ते दुःख छे.
चैतन्यनी सुंदरता जाणी त्यां बीजानी सुंदरता लागती नथी; चैतन्यना आनंदमां जे नम्यो ते हवे बाह्य विषयो
प्रत्ये अणनम रहेशे. जेम लग्न वखते वरराजाना गाणामां गाय छे के “नहि नमशे रे नहि नमशे, मोटाना छोरू
नहि नमशे”–तेम आ आत्मा जाग्यो ने ‘वर’ एटले उत्कृष्ट–प्रधान एवा आत्माना स्वभावमां आरूढ थयो ते
वर–राजा–चैतन्यराजा–हवे “नहि नमशे रे नहि नमशे. बाह्य–विषयोमां नहि नमशे.” अतीन्द्रिय चैतन्यमां जे
नम्यो ते इन्द्रिय विषयोमां अणनम रहेशे.
उपयोगने अंतरमां वाळीने ज्यां चैतन्यना शांतरसने निर्णयमां लीधो त्यां विकार के विषयो पोताना
शांतरसथी भिन्न अग्नि जेवा लागे छे; आत्माना शांतरसना स्वाद सिवाय समकितीने बीजा स्वाद रुचता नथी. जेम
शीत पाणीमां रहेनारुं माछलुं ऊनी रेतीमां आवे त्यां दुःखी थाय छे तो अग्निमां तो ते केम रही शके? पाणीमां ज जे
पोषाणुं तेने पाणी विना बहारमां केम गोठे? तेम आत्माना चैतन्य सरोवरना शांत जळमां केलि करनार समकिती
हंसने चैतन्यना शांतरस सिवाय बहारमां पुण्य–पापनी वृत्तिनी के इन्द्रिय विषयोनी रुचि ऊडी गई छे. चैतन्यना
आनंदनो एवो निर्णय (वेदन सहित) थई गयो छे के बीजा कोई वेदनमां स्वप्नेय सुख लागतुं नथी–आवी
समकितीनी दशा छे.