Atmadharma magazine - Ank 174
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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चैत्रः २४८४ः २१ः
आ संबंधमां श्लोक कह्यो छे के–
जायन्ते विरसा रसा विघटते गोष्ठी कथा कौतुकं
शीर्येन्ते विषयास्तथा विरमति प्रीतिः शरीरेऽपि च ।
जोषं वागपि धारयंत्यविरतानंदात्मनः स्वात्मन–
श्चिंतायामपि यातुमिच्छति मनो दोषैः समं पंचताम् ।।
अहो! आ चैतन्यस्वरूप आत्मानुं चिंतन करतां पण रसो विरस थई जाय छे, गोष्टी कथानुं कौतूक ऊडी जाय
छे, विषयोनुं विरेचन थई जाय छे, अने शरीर उपरथी पण प्रीति विरमी जाय छे. वाणीनुं जोस विरमी जाय छे, ने
मन पण समस्त दोषसहित पंचत्वने पामे छे. एटले के चैतन्यना चिंतनथी मन संबंधी समस्त दोषो नाश पामी जाय
छे, ने आत्मा अविरतपणे आनंदने धारण करे छे.–आवो चैतन्यना चिंतननो महिमा छे.
ज्ञानीनेय शुभाशुभराग तो आवे पण अंतरमां चैतन्यना रस आडे तेनो रस ऊडी गयो छे. ज्ञानीने
राग थाय त्यां अज्ञानीने एम लागे छे के एने रागनी रुचि हशे! पण ते वखते अंतर रागथी अत्यंत पार
एवा ज्ञानरसनो निर्णय ज्ञानीने वर्ते छे ते निर्णयनी अज्ञानीने खबर नथी. ज्ञानी रागमां एकतापणे
परिणमता ज नथी. शुभराग वखते सर्वज्ञदेवनी भक्ति वगेरेनो भाव आवे त्यां वीतरागता प्रत्येना
बहुमाननो भाव ऊछळ्‌यो छे ने रागनी रुचि नथी,–पण ते अंतरना निर्णयने अज्ञानी ओळखतो नथी, ने “
आरंभ–परिग्रह वधी गयो छे” एम अज्ञानी बाह्य द्रष्टिथी देखे छे. पण चैतन्यना अकषाय स्वभावने चूकीने
रागादिमां धर्म मानवो ते ज अनंत आरंभ–परिग्रह छे; ज्ञानीनी द्रष्टिमां कषायना एक अंशनी पण पक्कड रही
नथी, ने परिग्रहमां क्यांय एकताबुद्धि नथी, बहु ज अल्प राग–द्वेष रह्या छे तेथी तेने आरंभ–परिग्रह घणो
अल्प छे. चक्रवर्ती–समकितीने छ खंडनो राजवैभव होवा छतां घणो अल्प आरंभ–परिग्रह वर्ते छे; अने
मिथ्याद्रष्टि द्रव्यलिंगी थईने पंचमहाव्रत पाळे, बाह्यमां हिंसादि करतो न होय, छतां अंतरमां रागथी धर्म
मानतो होवाथी, तेने अनंत कषायनो आरंभ–परिग्रह छे; कषायनी रुचि वडे ते अकषायी चिदानंद स्वभावने
हणी नांखे छे, ते ज जीवहिंसा छे. रागना रसनी जेने मीठास छे ते आरंभ–परिग्रहमां ज ऊभो छे. ज्ञानीने
चैतन्यना आनंदरस सिवाय बीजा कोई विषयोमां रस नथी, तेथी तेने विषयोनो परिग्रह के आरंभ छूटी गयो
छे; सम्यक्श्रद्धा–ज्ञानमां पोताना अकषायी चिदानंदस्वभावने ते जीवतो राखे छे.
समस्त इन्द्रियविषयोथी पार थईने आत्माना अतीन्द्रिय आनंदमां लीन थयेला एवा अशरीरी सिद्धभगवंतो
उपरथी पुकार करे छे के अरे विषयोना भीखारी! ए विषयोने छोड, तारुं सुख आत्माना अतीन्द्रिय स्वभावमां छे,
तेनी लगनी लगाड. अहो! सिद्धभगवंतोने प्रतीतमां ल्ये तोपण जीवने इन्द्रिय–विषयोमां सुखबुद्धि ऊडी जाय, ने
आत्माना अतीन्द्रिय सुखस्वभावनी प्रतीत थई जाय. रागमां सुख, इन्द्रियविषयोमां सुख, एम अज्ञानी विषयोनो
भीखारी थई रह्यो छे; सिद्धभगवान रागरहित ने इन्द्रियविषयो रहित थई गया छे ने एकला आत्मस्वभावथी ज
परमसुखी छे. ते जगतना जीवोने उपरथी जाणे के पुकार करे छे के अरे जीवो! विषयोमां–रागमां तमारुं सुख नथी,
आत्मस्वभावमां ज सुख छे, तेने अंतरमां देखो, ने इन्द्रियविषयोनुं कुतूहल छोडो. चैतन्यना आनंदनो ज उल्लास,
तेनो ज रस, तेनुं ज कुतूहल, तेमां ज होंस, तेनी ज गोष्ठी करो.
समकितीने ज्यां आत्माना आनंदनुं भान थाय छे त्यां बाह्यविषयो निरस लागे छे ने पूर्वनी अज्ञान
दशा उपर खेद थाय छे के अरेरे! हुं अत्यारसुधी बाह्यविषयोमां ज सुख मानीने मारा आ अतीन्द्रिय आनंदने
चूकी गयो. अत्यार सुधी पूर्वे कदी में मारो आवो आनंद प्राप्त न कर्यो. हवे आत्मानो अतीन्द्रिय आनंद प्राप्त
थतां ते अपूर्व लाभथी ज्ञानी परम संतुष्ट थईने कृतकृत्यता अनुभवे छे. तेने हवे इन्द्रियविषयो विरस लागे छे,
विषयोनी कथानुं कौतुक तेने शमी जाय छे, विषयोनी गोष्ठी–प्रीति छूटी जाय छे, शरीर प्रत्येनी प्रीति पण छूटी
जाय छे, वाणी जाणे मौन थई जाय छे, आनंदस्वरूप पोताना आत्माना चिंतनथी समस्त दोषसहित मन पण
पंचत्वने पामे छे एटले के नाश पामे छे, ने आत्मा आनंदमां एकाग्र थतो जाय छे–अंतरात्मनी आवी दशा
होय छे.
।। १६।।
अहीं जिज्ञासु शिष्य पूछे छे के हे प्रभो! आवा अंतरात्मा थवा माटे आत्माने जाणवानो उपाय शुं छे? तेनो
उत्तर हवे कहेशे.
* * *