Atmadharma magazine - Ank 175
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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वैशाखः २४८४ः ११ः
सिद्धि थती नथी. तेथी आचार्यदेव कहे छे के–‘अनंत चैतन्य जेनुं चिह्न छे एवी आत्मज्योतिने अमे निरंतर
अनुभवीए छीए, कारण के तेना अनुभव विना अन्य रीते साध्य आत्मानी सिद्धि नथी.’
सततमनुभवामोऽनंतचैतन्यचिह्नं
न खलुः न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः।
(समयसार कळश २०)
भगवान आत्मद्रव्यमां बीजा साधन वगर पोताथी ज निर्मळपर्यायरूपे परिणमवानी ताकात छे; द्रव्य
पोते परिणमीने बधा गुणोनुं कार्य करे छे. वर्तमान वर्तता परिणामना साधकतम थवानी आत्मानी शक्ति छे
एम कह्युं तेमां जे वर्तमान परिणाम लीधा ते निर्मळ परिणाम छे; केम के साधकनी द्रष्टि शक्तिमान एवा द्रव्य
उपर गई छे, ने ते द्रव्यना आश्रये निर्मळ परिणाम ज थाय छे. ते निर्मळ परिणामनुं ज साधन थवानो द्रव्यनो
स्वभाव छे. व्यवहार सम्यग्दर्शनमां एवो स्वभाव नथी के ते निश्चय सम्यग्दर्शननुं साधन थाय.
निश्चयसम्यग्दर्शन तो शुद्धद्रव्यने ज साधन बनावीने थाय छे, अने ते ज साधनथी ते टके छे. एम बधी
निर्मळपर्यायमां शुद्धद्रव्यने ज साधन समजी लेवुं.
साधकपणा वखते निमित्तपणे बहारनी चीजो हो तो भले हो, भूमिकाअनुसार राग पण हो तो भले हो, परंतु
साधक धर्मात्मा ते कोईने पोताना साधकपणाना साधन तरीके स्वीकारता नथी, साधकपणाना साधन तरीके तो
पोताना आत्माने ज स्वीकार्यो छे. ते अखंड साधनमांथी ज मोक्षमार्गनी ने मोक्षनी निर्मळपर्यायोनो प्रवाह चाल्यो
आवे छे.
रागमां अने निमित्तोमां ज्ञाननुं ज्ञेय थवानी ताकात छे, पण ज्ञाननुं साधन थवानी ताकात नथी. ते
ज्ञाननुं ज्ञेय होवा छतां जे तेने ज्ञानना साधन तरीके माने ते बौद्धमती जेवो मिथ्याद्रष्टि छे. ज्ञाननुं साधन तो
आखो ज्ञायकस्वभाव छे तेने साधन न बनावतां परज्ञेयोने साधन माने छे, एटले के ज्ञानस्वभावमां एकता न
करतां परज्ञेयो साथे एकता माने छे, तेने ज्ञाननुं कार्य नथी थतुं पण अज्ञान थाय छे. जातिस्मरणज्ञान,
जिनप्रतिमादर्शन, वेदना वगेरेने सम्यक्त्व–उत्पत्तिनां कारणो कह्या छे ते बधा उपचारथी–ते ते निमित्तोनुं ज्ञान
कराववा माटे कह्या छे, परमार्थ साधन तो पोतानो चिदानंद भगवान ज छे. आ एक ज साधन छे,–‘एक
ननैयो सो रोगने हणे’–तेम आ एक स्वभावसाधननो स्वीकार बीजा बधा बाह्यसाधनोना रोगने हणी नांखे
छे एटले के स्वभावसाधननो स्वीकार करतां कोई पण बाह्य साधनोनी मान्यता छूटी जाय छे.
तीर्थंकरप्रकृति जड होवा छतां शास्त्रमां कोई वार तेने पण अरहंतपदनुं कारण कहे; त्यां तो एवो
निमित्त–नैमित्तिक संबंध बताववो छे के तीर्थंकरप्रकृति बांधनार सम्यग्द्रष्टि जीव त्रीजे भवे अवश्य अरहंतपद
प्रगटावीने तीर्थंकर थाय छे,–ते तीर्थंकर प्रकृतिना साधनथी नहि, पण स्वभावना ज साधनथी. ए ज प्रमाणे
अचेतन वाणीने पण ज्ञाननुं साधन कहेवाय, ते पण उपचारथी ज छे, ते खरेखर ज्ञाननुं साधन नथी. ज्ञान
थवानुं खरुं साधन तो ज्ञानस्वभाव ज छे. आ परमार्थ–साधनने लक्षमां ल्ये तेने ज सम्यग्ज्ञानादि कार्यनी सिद्धि
थाय छे. आ परमार्थसाधननी प्रतीतनुं फळ मोक्ष छे, ने बाह्य साधन माने तेनुं फळ संसार छे.
अनंतशक्तिस्वरूप भगवान आत्मा छे, तेनी ४३मी ‘करणशक्ति’ नुं आ वर्णन चाले छे. करण एटले
साधन; आत्मा पोते कर्ता थईने पोताना निर्मळपर्यायरूप कार्यने करे छे, पण तेनुं साधन शुं?–तो कहे छे के–
करणशक्तिने लीधे आत्मा पोते ज उत्कृष्ट साधन छे. साधकने पोतानो आत्मा ज निर्मळतानुं साधन छे.
आत्मामां साधन थवानी शक्ति तो त्रिकाळ छे, पण पोते स्वसन्मुख थईने ते साधनने कदी पकडयुं नथी. जो
स्वसन्मुख थईने स्वभाव–साधनने पकडे तो साधकदशा थया विना रहे नहि. त्रिकाळी द्रव्यने साधनपणे
अंगीकार करतां ज्ञानादि अनंतगुणो पोतपोतानी निर्मळ पर्यायपणे परिणमी जाय छे. प्रवचनसारनी २१मी
गाथामां पण कहे छे के–“केवळीभगवान स्वयमेव.. अनादिअनंत, अहेतुक अने असाधारण
ज्ञानस्वभावने
ज कारणपणे ग्रहवाथी तुरत ज प्रगटता केवळज्ञानोपयोगरूप थईने परिणमे छे..” जुओ, केटली स्पष्ट वात
छे! केवळज्ञाननुं कारण बीजुं कोई छे ज नहि, पोतानो त्रिकाळी ज्ञानस्वभाव ज केवळज्ञाननुं कारण छे, जे क्षणे
ते ज्ञानस्वभावने ज कारण–