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अनुभवीए छीए, कारण के तेना अनुभव विना अन्य रीते साध्य आत्मानी सिद्धि नथी.’
न खलुः न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः।
एम कह्युं तेमां जे वर्तमान परिणाम लीधा ते निर्मळ परिणाम छे; केम के साधकनी द्रष्टि शक्तिमान एवा द्रव्य
उपर गई छे, ने ते द्रव्यना आश्रये निर्मळ परिणाम ज थाय छे. ते निर्मळ परिणामनुं ज साधन थवानो द्रव्यनो
स्वभाव छे. व्यवहार सम्यग्दर्शनमां एवो स्वभाव नथी के ते निश्चय सम्यग्दर्शननुं साधन थाय.
निश्चयसम्यग्दर्शन तो शुद्धद्रव्यने ज साधन बनावीने थाय छे, अने ते ज साधनथी ते टके छे. एम बधी
निर्मळपर्यायमां शुद्धद्रव्यने ज साधन समजी लेवुं.
पोताना आत्माने ज स्वीकार्यो छे. ते अखंड साधनमांथी ज मोक्षमार्गनी ने मोक्षनी निर्मळपर्यायोनो प्रवाह चाल्यो
आवे छे.
आखो ज्ञायकस्वभाव छे तेने साधन न बनावतां परज्ञेयोने साधन माने छे, एटले के ज्ञानस्वभावमां एकता न
करतां परज्ञेयो साथे एकता माने छे, तेने ज्ञाननुं कार्य नथी थतुं पण अज्ञान थाय छे. जातिस्मरणज्ञान,
जिनप्रतिमादर्शन, वेदना वगेरेने सम्यक्त्व–उत्पत्तिनां कारणो कह्या छे ते बधा उपचारथी–ते ते निमित्तोनुं ज्ञान
कराववा माटे कह्या छे, परमार्थ साधन तो पोतानो चिदानंद भगवान ज छे. आ एक ज साधन छे,–‘एक
ननैयो सो रोगने हणे’–तेम आ एक स्वभावसाधननो स्वीकार बीजा बधा बाह्यसाधनोना रोगने हणी नांखे
छे एटले के स्वभावसाधननो स्वीकार करतां कोई पण बाह्य साधनोनी मान्यता छूटी जाय छे.
प्रगटावीने तीर्थंकर थाय छे,–ते तीर्थंकर प्रकृतिना साधनथी नहि, पण स्वभावना ज साधनथी. ए ज प्रमाणे
अचेतन वाणीने पण ज्ञाननुं साधन कहेवाय, ते पण उपचारथी ज छे, ते खरेखर ज्ञाननुं साधन नथी. ज्ञान
थवानुं खरुं साधन तो ज्ञानस्वभाव ज छे. आ परमार्थ–साधनने लक्षमां ल्ये तेने ज सम्यग्ज्ञानादि कार्यनी सिद्धि
थाय छे. आ परमार्थसाधननी प्रतीतनुं फळ मोक्ष छे, ने बाह्य साधन माने तेनुं फळ संसार छे.
करणशक्तिने लीधे आत्मा पोते ज उत्कृष्ट साधन छे. साधकने पोतानो आत्मा ज निर्मळतानुं साधन छे.
आत्मामां साधन थवानी शक्ति तो त्रिकाळ छे, पण पोते स्वसन्मुख थईने ते साधनने कदी पकडयुं नथी. जो
स्वसन्मुख थईने स्वभाव–साधनने पकडे तो साधकदशा थया विना रहे नहि. त्रिकाळी द्रव्यने साधनपणे
अंगीकार करतां ज्ञानादि अनंतगुणो पोतपोतानी निर्मळ पर्यायपणे परिणमी जाय छे. प्रवचनसारनी २१मी
गाथामां पण कहे छे के–“केवळीभगवान स्वयमेव.. अनादिअनंत, अहेतुक अने असाधारण
ते ज्ञानस्वभावने ज कारण–