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एष योगः समासेन प्रदीपः परमात्मनः
छोडवी तेमज अंतरंग विकल्पो पण छोडवा; आनुं नाम योग छे, अने संक्षेपथी आ योग ते परमात्मानो
प्रकाशक प्रदीप छे.
जड छे, ते वाणी माराथी भिन्न छे, ते वाणीथी मारुं स्वरूप प्रकाशित थतुं नथी, ने वाणी तरफना विकल्पवडे पण मारा
स्वरूपनो प्रकाश थतो नथी; वाणी अने विकल्प बंनेथी पार थईने अंतर्मुख चैतन्यना चिंतनमां एकाग्रतावडे ज मारा
स्वरूपनुं प्रकाशन थाय छे. वाणी बोलवानी क्रिया थती होय ते वखते पण ज्ञानीने तेनाथी भिन्न आवा चैतन्यनुं
भान छे माटे एम कह्युं छे के ज्ञानी बोले छतां मौन छे. अने अज्ञानी मौन छतां बोले छे केमके ‘हुं न बोल्यो’ एवा
अभिप्रायथी ते भाषानो स्वामी थाय छे. वचन अने विकल्प बंनेथी जुदो हुं तो ज्ञान छुं, मारा ज्ञानवडे ज हुं मने
जाणुं छुं–एम ज्ञानी पोते पोताना आत्माने स्वसंवेदनथी प्रकाशे छे–आ ज आत्माने जाणवानी रीत छे, आनुं नाम ज
योग छे. आ सिवाय मन, वचन के कायाना जड योगथी आत्माने जाणवा मांगे तो ते मूढ छे, तेणे चैतन्य साथे जोडाण
नथी कर्युं पण जड साथे जोडाण कर्युं छे; ते ज्ञानस्वरूपमां सावधान नथी तेथी तेने समाधि नथी. ज्ञानस्वरूपमां
सावधानी ते ज समाधि छे.
रागमां शांति माने, तेने अंतर्मुख एकाग्र थवानो अवसर क्यांथी आवे? घणा कहे छे के मरण टाणे आपणे समाधि
राखशुं. पण जीवनमां जेणे देहथी भिन्न आत्मानी दरकार करी नथी. देहादिनां कार्योने ज पोतानां कार्य मान्यां छे, ते
देह छूटवा टाणे कोना जोरे समाधि राखशे? जेणे