
समाधि रही शकशे. पोताना आत्मा सिवाय बहारमां बीजुं कोई शरण आत्माने छे ज नहि. बहारमां बीजाने शरण
मानीने समाधान करवा मांगे ते तो फांफां छे, संयोग छूटी जतां तेनुं समाधान टकी नहि शके. अने आत्माना आधारे
जेणे समाधान कर्युं तेने गमे तेवा प्रतिकूळ संयोगमां पण ते टकी रहेशे.
आत्मस्वभावनुं ज शरण छे, जैनधर्मनुं ज शरण छे. प्रभो! आपे बतावेला धर्मनी आराधना अधूरी रही गई तेथी
अहीं अवतार थयो हतो, हवे मनुष्य अवतार पामीने अमारी आराधना पूरी करशुं ने मुक्ति पामशुं” एम भावना
भावतां जिनेन्द्रदेवना चरण समीपे ज देह छूटी जाय छे, ने परमाणुओ छूटा थईने ऊडी जाय छे. जुओ, अंदर
चैतन्यनुं शरण भास्युं छे एटले तेना जोरे आवी भावनाथी देह छोडे छे. ज्यारे मूढ अज्ञानी जीवो तो असमाधिपणे
वलोपात करी करीने मरे छे.
छोडीने चैतन्यने देखी शकता नथी, तेओ तो चैतन्यना पुरुषार्थ रहित नपुंसक छे, तेमनामां भवरहित एवा
वीतरागनी वाणीनो निर्णय करवानी ताकात नथी. “अहो जीवो! तमारुं सुख तमारामां छे, बाह्य विषयोमां क्य
ांय सुख नथी, आत्मा ज सुखस्वभावी छे, माटे आत्मामां अंतर्मुख थये ज सुख छे”–आवी वाणीना रणकार
ज्यां काने पडे त्यां तो आत्मार्थी जीवनो आत्मा झणझणी ऊठे के वाह! आ भवरहित वीतरागी पुरुषनी
वाणी!! आत्माना परमशांत रसने बतावनारी आ वाणी अपूर्व छे! वीतरागी संतोनी वाणी परम अमृत छे,
ने ए भवरोगनो नाश करनार अमोघ औषध छे.–आम तेनो आत्मा उल्लसी जाय छे, ने पुरुषार्थनी दिशा
स्वतरफ वळी जाय छे, विषयोमांथी सुखबुद्धि ऊडी जाय छे.–एणे ज खरेखर भवरहित वीतरागनी वाणीनो
निर्णय कर्यो छे. बाह्यविषयोनी के रागनी प्रीतिवाळो नामर्द जीव वीतरागी भवरहित पुरुषोनी वाणीनो निर्णय
करी शकतो नथी.