Atmadharma magazine - Ank 175
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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वैशाखः २४८४ः १पः
देहथी भिन्न आत्माने जाणीने तेनी वारंवार भावनानो अभ्यास कर्यो छे तेने ज देह छूटवा–टाणे चैतन्यना जोरे
समाधि रही शकशे. पोताना आत्मा सिवाय बहारमां बीजुं कोई शरण आत्माने छे ज नहि. बहारमां बीजाने शरण
मानीने समाधान करवा मांगे ते तो फांफां छे, संयोग छूटी जतां तेनुं समाधान टकी नहि शके. अने आत्माना आधारे
जेणे समाधान कर्युं तेने गमे तेवा प्रतिकूळ संयोगमां पण ते टकी रहेशे.
स्वर्गमां असंख्य समकिती देवो छे; तेमने ज्यां आयुष्य पूरुं थवानो वखत आवे त्यारे, त्यां स्वर्गमां शाश्वत
रत्नोना जिनबिंबो छे तेमना चरणमां जईने भक्तिथी कहे छे के अहो! नाथ! आपनुं ज शरण छे, आपे बतावेला
आत्मस्वभावनुं ज शरण छे, जैनधर्मनुं ज शरण छे. प्रभो! आपे बतावेला धर्मनी आराधना अधूरी रही गई तेथी
अहीं अवतार थयो हतो, हवे मनुष्य अवतार पामीने अमारी आराधना पूरी करशुं ने मुक्ति पामशुं” एम भावना
भावतां जिनेन्द्रदेवना चरण समीपे ज देह छूटी जाय छे, ने परमाणुओ छूटा थईने ऊडी जाय छे. जुओ, अंदर
चैतन्यनुं शरण भास्युं छे एटले तेना जोरे आवी भावनाथी देह छोडे छे. ज्यारे मूढ अज्ञानी जीवो तो असमाधिपणे
वलोपात करी करीने मरे छे.
सर्वज्ञ भगवाननो उपदेश बाह्य विषयोथी छोडावीने अंतरमां चैतन्यनुं शरण करावे छे; ते ज जीवनुं हित छे,
केमके चैतन्यना अनुभवथी ज भवनो नाश थईने मोक्षसुख प्रगटे छे.
‘वचनामृत वीतरागनां परम शांत रसमूळ,
औषध जे भवरोगनां कायरने प्रतिकूळ.’
देहने ज जेणे आत्मा मान्यो छे, विषयोमां ज जेणे सुख मान्युं छे एवा मूढ जीवोने वीतरागनी वाणी
प्रतिकूळ पडे छे, केमके वीतरागनी वाणी तो विषयोनुं विरेचन करावनारी छे. मूढ कायर जीवो विषयोनी लीनता
छोडीने चैतन्यने देखी शकता नथी, तेओ तो चैतन्यना पुरुषार्थ रहित नपुंसक छे, तेमनामां भवरहित एवा
वीतरागनी वाणीनो निर्णय करवानी ताकात नथी. “अहो जीवो! तमारुं सुख तमारामां छे, बाह्य विषयोमां क्य
ांय सुख नथी, आत्मा ज सुखस्वभावी छे, माटे आत्मामां अंतर्मुख थये ज सुख छे”–आवी वाणीना रणकार
ज्यां काने पडे त्यां तो आत्मार्थी जीवनो आत्मा झणझणी ऊठे के वाह! आ भवरहित वीतरागी पुरुषनी
वाणी!! आत्माना परमशांत रसने बतावनारी आ वाणी अपूर्व छे! वीतरागी संतोनी वाणी परम अमृत छे,
ने ए भवरोगनो नाश करनार अमोघ औषध छे.–आम तेनो आत्मा उल्लसी जाय छे, ने पुरुषार्थनी दिशा
स्वतरफ वळी जाय छे, विषयोमांथी सुखबुद्धि ऊडी जाय छे.–एणे ज खरेखर भवरहित वीतरागनी वाणीनो
निर्णय कर्यो छे. बाह्यविषयोनी के रागनी प्रीतिवाळो नामर्द जीव वीतरागी भवरहित पुरुषोनी वाणीनो निर्णय
करी शकतो नथी.
स्वसन्मुख थवानुं बतावनारी वीतरागनी वाणीनो निर्णय करनार ज्ञानी वचन अने विकल्पनी प्रवृत्तिनुं
अवलंबन छोडीने, ज्ञानने अंतर्मुख करीने पोताना आत्माने समस्त परपदार्थोथी भिन्न देखे छे–जाणे छे–अनुभवे छे.।। १७।।