Atmadharma magazine - Ank 175
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 18 of 25

background image
वैशाखः २४८४ ः १७ः
(९६) प्रश्नः– शिष्यना प्रश्नना उत्तरमां आचार्यदेव कई गाथा कहे छे?
उत्तरः–
शिष्यना प्रश्नना उत्तरमां आचार्यदेव कहे छे के–
“परिणाम कर्मतणुं अने
नोकर्मनुं परिणाम जे
ते नव करे, जे मात्र जाणे,
ते ज आत्मा ज्ञानी छे. ७प
जे आत्मा कर्म–नोकर्मना परिणामने खरेखर करतो नथी, विकारमां तन्मय थतो नथी, पण विकारथी
भिन्न पोताना आत्माने जाणीने ज्ञानस्वरूप थाय छे–ते ज्ञानी छे.
(९७) प्रश्नः– आत्मानो स्वभाव केवो छे?
उत्तरः– आत्मानो स्वभाव परिपूर्ण ज्ञान ने आनंदथी भरेलो छे; विकार ते तेनो स्वभाव नथी. मोहथी ज
विकारनुं कर्तापणुं प्रतिभासे छे.
(९८) प्रश्नः– मोह शुं छे?
उत्तरः– ज्ञान–आनंदस्वरूप आत्माने भूलीने, ‘विकार ते ज हुं,’ एवी मान्यता ते मोह छे; अथवा स्वरूपमां
असावधानी ने विकारमां ज सावधानी ते मोह छे. स्वरूपनो उत्साह छोडीने परपदार्थ तरफनो उत्साह ते
मोह छे.
(९९) प्रश्नः– राग–द्वेष–मोह ते कोनां परिणाम छे?
उत्तरः– राग–द्वेष–मोह ते जीवनी पर्यायमां थाय छे ते अपेक्षाए तो जीवनां विकारी परिणाम छे.
(१००) प्रश्नः– ते जीवनां परिणाम होवा छतां, निश्चयथी तेने कर्मनां परिणाम केम कह्या छे?
उत्तरः–
जीवना स्वभावमां राग–द्वेष–मोह नथी, ते राग–द्वेष–मोहरूपे परिणमवानो जीवनो स्वभाव नथी;
जीवना स्वभाव साथे ते राग–द्वेष–मोहनी एकता नथी, तेथी स्वभावद्रष्टिनी अपेक्षाए ते जीवनां
परिणाम नथी,–माटे तेने कर्मनां परिणाम कह्यां छे.
(१०१) प्रश्नः– ए रीते विकारने कर्मनां परिणाम कहेवानुं शुं प्रयोजन छे?
उत्तरः–
ते विकारथी भेदज्ञान करावीने जीवना शुद्धस्वभावनी द्रष्टि कराववानुं प्रयोजन छे. ते शुद्धस्वभावना
अवलंबनमां विकारनी उत्पत्ति थती नथी.
(१०२) प्रश्नः–जीवने अने रागादि विकारने परमार्थे कर्ताकर्मपणुं छे के नथी?
उत्तरः– ना;
परमार्थे जीवने अने रागादि विकारने कर्ताकर्मपणुं नथी.
(१०३) प्रश्नः– जीवने रागादि साथे कर्ताकर्मपणुं केम नथी?
उत्तरः–
केमके जीवना स्वभावने अने रागादिने व्याप्य–व्यापकपणुं नथी; व्याप्य–व्यापकपणा वगर कर्ताकर्मपणुं
होतुं नथी.
(१०४) प्रश्नः– व्याप्य–व्यापकभावनुं द्दष्टांत शुं छे?
उत्तरः–
जेम के घडो अने माटी, तेमने व्याप्य–व्यापकपणुं छे; तेमां घडो ते व्याप्य छे ने माटी व्यापक छे, तेथी
तेमने तो कर्ताकर्मपणुं छे.–माटी कर्ता छे ने घडो तेनुं कार्य छे, परंतु घडो अने माटीनी माफक विकारने
अने आत्मस्वभावने व्याप्य–व्यापकपणुं नथी. आत्मा व्यापक थईने विकारमां व्यापतो नथी–तेमां
तन्मय थतो नथी; माटे आत्माने विकार साथे कर्ताकर्मपणुं खरेखर नथी.
(१०प) प्रश्नः– तो आत्माने कोनी साथे कर्ताकर्मपणुं छे?
उत्तरः– आत्माने पोताना ज्ञानपरिणाम साथे ज कर्ताकर्मपणुं छे; केमके तेनी साथे ज तेने व्याप्य–व्यापकपणुं छे.
(१०६) प्रश्नः– व्याप्य–व्यापकपणुं क्यां होय, ने क्यां न होय?
उत्तरः– व्याप्य–व्यापकपणुं तत्स्वरूपमां ज होय, अतत्–स्वरूपमां न होय; अर्थात् जे जेनुं स्वरूप होय तेमां ज
ते व्यापक होय, अने जे जेनुं स्वरूप न होय तेमां ते व्यापक न होय. तथा ज्यां व्याप्य–व्यापकपणुं होय
त्यां ज कर्ताकर्मपणुं होय.
(१०७) प्रश्नः– कुंभार घडानो कर्ता छे के नथी?
उत्तरः– ना;
खरेखर कुंभार घडानो कर्ता नथी.