Atmadharma magazine - Ank 175
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः ६ः आत्मधर्मः १७प
व्यवहार–रत्नत्रयमां एवी शक्ति नथी के साधक थईने निश्चयरत्नत्रयने साधे. स्वभावने एकने ज साधन बनावीने
जेणे निश्चयरत्नत्रयने साध्या तेने व्यवहाररत्नत्रय उपचारथी साधन कहेवाय छे. खरेखर तो द्रव्य ज साधकतम छे;
एना सिवाय व्यवहारथी कांई साध्य नथी.
आ समयसारमां गा. ३प६ थी ३६पनी टीकामां प्रश्न मूकयो छे के ‘अहीं स्व–स्वामीरूप अंशोना व्यवहारथी शुं
साध्य छे?’ तेना उत्तरमां स्पष्ट कहे छे के ‘तेनाथी कांई साध्य नथी.’ जुओ, भेदद्वारा अभेद साध्य छे, के
व्यवहारद्वारा निश्चय साध्य छे–एम आचार्यदेवे न कह्युं, पण तेनाथी कांई ज साध्य नथी–एम कह्युं. ज्यां अंदरना
गुण–गुणीभेदरूप सूक्ष्म व्यवहारथी पण कांई साध्य नथी तो पछी बीजा स्थूळ रागादि तो सिद्धिनुं साधन क्यांथी
थाय? राग द्वारा अर्थात् रागने साधन बनावीने आत्माना स्वभावमां जवातुं नथी पण सीधा स्वभावना
अवलंबनथी ज स्वभावमां जवाय छे, एटले आत्मा पोते ज पोतानुं साधन थाय छे. ज्यां आत्मस्वभावनुं अवलंबन
ल्ये त्यां जरूर सम्यग्दर्शनादि थाय ज, अने आत्मस्वभावना अवलंबन वगर सम्यग्दर्शनादि थाय ज नहि; ए रीते
आत्मस्वभाव ज अबाघित साधन छे. बीजा जे कोई साधन कहेवामां आवता होय ते उपचारथी ज छे, नियमरूप
नथी–एम समजवुं.
शुद्ध अनंत चैतन्यशक्तिवाळो आ आत्मा पोते ज केवळज्ञानरूपे परिणमवाना स्वभाववाळो होवाथी
पोते ज साधकतम छे; स्वयमेव छ कारकरूप थईने परिणमतो होवाथी ते ‘स्वयंभू’ छे. आथी एम कह्युं के,
निश्चयथी परनी साथे आत्माने कारणपणानो संबंध नथी, के जेथी शुद्धात्मस्वभावनी प्राप्तिने माटे सामग्री
(बाह्य साधनो) शोधवानी व्यग्रताथी जीवो नकामा परतंत्र थाय छे. आ रीते शुद्धात्मस्वभावनी प्राप्ति
अन्यकारकोथी निरपेक्ष होवाथी अत्यंत आत्माधीन छे. (जुओ प्रवचनसार गा. १६) सम्यग्दर्शननी प्राप्ति पण
अन्य कारकोथी निरपेक्ष, अत्यंत आत्माधीन छे; ए ज प्रमाणे सम्यग्ज्ञान–सम्यक्चारित्र वगेरेनी प्राप्ति पण
अन्य साधनोथी निरपेक्ष, अत्यंत आत्माधीन छे.
मारी पर्यायोनुं साधन हुं ज छुं ने बीजुं मारुं साधन नथी–एम नक्की करीने धर्मात्मा ‘बाह्य साधनोनो
आश्रय लेता नथी पण पोताना आत्मानो ज आश्रय करे छे, ने आत्मानो आश्रय करतां आत्मा पोते साधन थईने
निर्मळ पर्यायो थाय छे. प्रवचनसार गा. १२६मां कह्युं छे के–
कर्ता, करम, फळ, करण जीव छे–
एम जो निश्चय करी,
मुनि अन्यरूप नव परिणमे,
प्राप्ति करे
शुद्धात्मनी.
(विशेष माटे आ गाथानी टीका जुओ; अथवा ३९मी शक्ति उपरनुं प्रवचन जुओ.)
लोकोए स्थूळपणे–बाह्यद्रष्टिथी बहारनां साधनो मानी लीधा छे, पण सूक्ष्मपणे–अंतरद्रष्टि करीने पोताना
धर्मनुं वास्तविक साधन कदी शोध्युं नथी. अरे! बहारमां मारा हितनुं साधन मानीने अनंतकाळथी में प्रयत्न कर्यो
छतां मने मारुं हित न मळ्‌युं, माटे अंतरमां बीजुं कांईक साधन होवुं जोईए–एम ऊंडाणथी विचारीने जीवे कदी साचा
साधननी तपास करी नथी. अरे! विकारथी भिन्न मारा आत्मानो अनुभव कया साधनथी थाय?–एम जेना अंतरमां
ऊंडी जिज्ञासा जागी छे तेने साधन बतावतां आचार्यदेव कहे छे के आत्मा अने बंधने जुदा करवारूप कार्यमां कर्ता जे
आत्मा तेना करण (साधन) संबंधी ऊंडी विचारणा–मीमांसा करवामां आवतां, निश्चये पोताथी भिन्न करणनो
अभाव होवाथी भगवती प्रज्ञा ज छेदनात्मक करण छे. ते प्रज्ञावडे तेमने छेदवामां आवतां तेओ जुदापणाने अवश्य
पामे छे, माटे प्रज्ञावडे ज आत्मा अने बंधनुं द्विधा करवुं छे, एटले के प्रज्ञारूपी साधनवडे ज तेमनुं भेदज्ञान थाय छे.
(जुओ, समयसार गा. २९४ टीका)
आत्माना स्वभावने अने रागादि बंधभावने प्रज्ञा वडे खरेखर कई रीते छेदी शकाय? एम शिष्यने प्रश्न थतां
आचार्यदेव तेने उत्तर आपे छे के ‘आत्मा अने बंधना नियत स्वलक्षणोनी सूक्ष्म अंर्तसंधिमां प्रज्ञाछीणीने सावधान
थईने पटकवाथी तेमने छेदी शकाय छे–एम अमे जाणीए छीए.’
(स. गा. २९४ टीका)