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कर्ताथी भिन्न जे कोई साधन कहेवामां आवे ते कोई खरेखर साधन नथी. ‘पोताथी भिन्न करणनो अभाव छे.’ एम
कहीने आचार्यदेवे महासिद्धांत बताव्यो छे. अरे जीव! तारा साधननी ऊंडी तपास तारामां कर, तारामां ज साधनने
शोध. जेओ पोताना साधनने बहारमां शोधे छे तेओ साधननी ऊंडी तपास करनारा नथी पण छीछरी बुद्धिवाळा–
बाह्य द्रष्टिवंत छे. जेओ आत्माना हितना साधनथी खरी मीमांसा करे छे, ऊंडी तपास करे छे, अंतरमां ऊतरीने शोध
करे छे तेओने तो पोताना आत्मामां ज पोतानुं साधन भासे छे; ए सिवाय राग के बाह्यद्रव्यो पोताना हितना साधन
तरीके जराय भासता ज नथी. ज्ञानने सूक्ष्म करीने (इन्द्रियोथी ने रागथी पार लई जईने) अंतरमां वाळतां भगवान
आत्मानो अनुभव थाय छे. ते अंतर्मुख ज्ञानने प्रज्ञा कहे छे, ने ते ज आत्माना अनुभवनुं साधन छे. अने ते
प्रज्ञारूप निर्मळपर्याय आत्मा साथे अभेद होवाथी अभेदपणे आत्मा ज पोते पोतानुं साधन छे. ‘हुं ज, मारा वडे ज,
मारा माटे ज, मारामांथी ज, मारामां ज, मने ज ग्रहण करुं छुं’–एम पोतामां ज अभिन्न छ कारको छे. (जुओ,
समयसार गा. २९७)
मारी रह्या छे. अंतरना निज साधनने भूलीने अनंतकाळथी बहारमां फाफां मार्या पण जीवने कांई हाथमां न आव्युं,
वनवास लयो मुख मौन रह्यो,
द्रढ आसन पद्म लगाय दियो.
सब शास्त्रनके नय धारी हिये,
मत मंडन खंडन भेद लिये;
वह साधन बार अनंत कियो,
तदपि कछु हाथ हजु न पर्यो.
अब कयों न विचारत है मनसें,
कछु ओर रहा उन साधनसें?
बिन सद्गुरु कोई न भेद लहे
मुख आगळ है कह बात कहे!”
शास्त्रो भण्यो, वनमां रह्यो ने मौन रह्यो; आवा आवा बधा साधनो अनंतवार तें कर्या, छतां हजी तुं जरा पण हित
न पाम्यो. तो हवे तुं तारा मनमां केम विचार करतो नथी के आ बधाय साधनोथी बीजुं कंईक खरुं साधन बाकी रही
जाय छे? सद्गुरुगमे ए साधननो तुं विचार कर.
साधन नथी, माटे अत्यार सुधी मानेला बाह्य साधनोनी द्रष्टि छोड ने अंतरना चैतन्य स्वभावनी द्रष्टि कर..तेनो
विश्वास करीने तेने ज साधन बनाव. तारो शुद्ध आत्मा ज साध्य छे, ने ते शुद्ध आत्मानुं अवलंबन करवुं ते ज साधन
छे; आ रीते तारुं साध्य अने साधन बंने तारामां ज समाय छे.
एवी शक्ति नथी के आत्मानी निर्मळ पर्यायनुं ते साधन थाय, अने आत्मानो स्वभाव एवो नथी के पोताना निर्मळ
कार्यने माटे ते कोई बीजा साधननी अपेक्षा राखे. आत्मानो स्वभाव पोते ज साधकतम होवाथी तेनुं सन्मुखताथी