Atmadharma magazine - Ank 175
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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वैशाखः २४८४ः ७ः
जुओ, आ साधन! आचार्यदेव स्वानुभव सहित कहे छे के अमे आवा अंतरना साधनथी ज आत्माने
बंधभावोथी जुदो जाण्यो छे. कर्तानुं साधन पोतामां ज छे. कर्तानुं साधन खरेखर कर्ताथी भिन्न होतुं नथी; तेथी
कर्ताथी भिन्न जे कोई साधन कहेवामां आवे ते कोई खरेखर साधन नथी. ‘पोताथी भिन्न करणनो अभाव छे.’ एम
कहीने आचार्यदेवे महासिद्धांत बताव्यो छे. अरे जीव! तारा साधननी ऊंडी तपास तारामां कर, तारामां ज साधनने
शोध. जेओ पोताना साधनने बहारमां शोधे छे तेओ साधननी ऊंडी तपास करनारा नथी पण छीछरी बुद्धिवाळा–
बाह्य द्रष्टिवंत छे. जेओ आत्माना हितना साधनथी खरी मीमांसा करे छे, ऊंडी तपास करे छे, अंतरमां ऊतरीने शोध
करे छे तेओने तो पोताना आत्मामां ज पोतानुं साधन भासे छे; ए सिवाय राग के बाह्यद्रव्यो पोताना हितना साधन
तरीके जराय भासता ज नथी. ज्ञानने सूक्ष्म करीने (इन्द्रियोथी ने रागथी पार लई जईने) अंतरमां वाळतां भगवान
आत्मानो अनुभव थाय छे. ते अंतर्मुख ज्ञानने प्रज्ञा कहे छे, ने ते ज आत्माना अनुभवनुं साधन छे. अने ते
प्रज्ञारूप निर्मळपर्याय आत्मा साथे अभेद होवाथी अभेदपणे आत्मा ज पोते पोतानुं साधन छे. ‘हुं ज, मारा वडे ज,
मारा माटे ज, मारामांथी ज, मारामां ज, मने ज ग्रहण करुं छुं’–एम पोतामां ज अभिन्न छ कारको छे. (जुओ,
समयसार गा. २९७)
अहो! पोताना सम्यग्दर्शनादि कार्यना साधकतम थवानी ताकात आत्मामां त्रिकाळ छे, पोते ज स्वयं कारण
थईने पोताना सम्यग्दर्शनादिने साधे एवी शक्ति पोतामां ज छे, पण तेने भूलीने साधन माटे मफतनो बहारमां फांफा
मारी रह्या छे. अंतरना निज साधनने भूलीने अनंतकाळथी बहारमां फाफां मार्या पण जीवने कांई हाथमां न आव्युं,
छतां सत्य साधन शुं छे तेनो ते ऊंडो विचार पण करतो नथी. श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे के–
“यम नियम संयम आप कियो,
पुनि त्याग विराग अथाग लह्यो;
वनवास लयो मुख मौन रह्यो,
द्रढ आसन पद्म लगाय दियो.
सब शास्त्रनके नय धारी हिये,
मत मंडन खंडन भेद लिये;
वह साधन बार अनंत कियो,
तदपि कछु हाथ हजु न पर्यो.
अब कयों न विचारत है मनसें,
कछु ओर रहा उन साधनसें?
बिन सद्गुरु कोई न भेद लहे
मुख आगळ है कह बात कहे!”
अरे जीव! एक अंतरना चैतन्य साधनने चूकीने बहारना बीजा बधा साधन तें अनंतवार कर्यां, व्रत अने
तप कर्यां, दिगंबर मुनि–द्रव्यलिंगी थईने पंचमहाव्रत पाळ्‌या, हजारो राणीओ छोडीने शुभ वैराग्यथी त्यागी थयो,
शास्त्रो भण्यो, वनमां रह्यो ने मौन रह्यो; आवा आवा बधा साधनो अनंतवार तें कर्या, छतां हजी तुं जरा पण हित
न पाम्यो. तो हवे तुं तारा मनमां केम विचार करतो नथी के आ बधाय साधनोथी बीजुं कंईक खरुं साधन बाकी रही
जाय छे? सद्गुरुगमे ए साधननो तुं विचार कर.
प्रभो! मारा हितनुं साधन शुं? एम पूछतां श्रीगुरु कहे छे के हे वत्स! तारो आत्मा अनंतगुणथी भरेलो
चैतन्यमूर्ति छे, तेनुं अवलंबन कर; ते ज तारा हितनुं साधन छे. तारा आत्माथी भिन्न बीजुं कोई तारा हितनुं
साधन नथी, माटे अत्यार सुधी मानेला बाह्य साधनोनी द्रष्टि छोड ने अंतरना चैतन्य स्वभावनी द्रष्टि कर..तेनो
विश्वास करीने तेने ज साधन बनाव. तारो शुद्ध आत्मा ज साध्य छे, ने ते शुद्ध आत्मानुं अवलंबन करवुं ते ज साधन
छे; आ रीते तारुं साध्य अने साधन बंने तारामां ज समाय छे.
आत्मानी अनंतशक्तिओमां एक एवी करणशक्ति छे के जे सम्यग्दर्शनादि निर्मळ पर्यायो थाय छे तेनुं साधन
आत्मा पोते थाय छे. सम्यग्दर्शनादि निर्मळ पर्यायोनुं उत्कृष्ट साधन आत्मा ज छे. निमित्त वगेरे परवस्तुमां के रागमां
एवी शक्ति नथी के आत्मानी निर्मळ पर्यायनुं ते साधन थाय, अने आत्मानो स्वभाव एवो नथी के पोताना निर्मळ
कार्यने माटे ते कोई बीजा साधननी अपेक्षा राखे. आत्मानो स्वभाव पोते ज साधकतम होवाथी तेनुं सन्मुखताथी