शांतिनो अनुभव थाय छे. भवनो जेने थाक लाग्यो होय ने आत्माना सुखनी भूख जागी होय ते भूख्याने माटे आ
सुखडी छे; आ सुखडीथी अनंत भवनी भूखडी भांगी जाय छे, ने अपूर्व सुखनी प्राप्ति थाय छे.
स्वभावमां तो ज्ञान–आनंद ज भर्या छे तेथी ते ज्ञान–आनंदनो ज दातार छे; अने आत्मा पोते ज तेनो लेनार छे.
आत्मानो आवो आनंदस्वभाव संतो बतावे छे, तेथी निमित्त तरीके संतो आनंदना दातार छे. वीरसेनाचार्यदेव कहे छे
के आ महान परमागमोद्वारा श्री सर्वज्ञदेवे जीवोने आनंदनुं भेटणुं आप्युं छे...सर्वज्ञना शास्त्रमां आनंदनी प्राप्तिनो
मार्ग दर्शाव्यो छे तेथी कह्युं के भगवाने ज आनंदनी भेट आपी छे. भगवानना कहेला शास्त्रोनो अंतरआशय समजे
तेने अतीन्द्रियआनंदनी प्राप्ति थया वगर रहे नहि.
आनंद आपे. मूढ जीवोए मूर्खताथी ज तेमां आनंद मान्यो छे. आत्माना आनंदने जे जाणे ते बीजे क्यांय आनंद
माने नहि, अने जेमां आनंद माने नहि तेने ते ल्ये पण नहि. आ रीते आत्मा पात्र थईने रागनो के परनो लेनार
नथी पण पोताना स्वभावमांथी देवामां आवता आनंदनो ज लेनार छे. माटे ज्ञान स्वभावनी द्रष्टिमां ज्ञानीना बधाय
भावो ज्ञान–आनंदमय ज होय छे, रागादि ते खरेखर ज्ञानभाव नथी, ते तो ज्ञानथी भिन्न ज्ञेय छे, ज्ञानी तेनो
जाणनार छे, पण पोताना आत्माने ते रागनुं संप्रदान बनावतो नथी, ज्ञान–आनंदनुं ज संप्रदान बनावे छे, तेने ज
ल्ये छे, ते–रूपे ज परिणमे छे. आ रीते संप्रदान शक्तिथी आत्मा पोते ज सम्यग्दर्शनादिनो दातार ने पोते ज तेनो
लेनार छे; बीजुं कोई तेनुं संप्रदान नथी तेमज ते बीजा कोईनो संप्रदान नथी.–आत्मानी आवी शक्तिने ओळखतां
आत्मा ओळखाय छे ने धर्म थाय छे.
ते हुं’ एम जो श्रद्धा–ज्ञानने परमां के विकारमां मूके तो तो तेनो नाश थई जाय छे–ते मिथ्या थई जाय छे.
पोतानो चिदानंद स्वभाव ज एवो सद्धर छे के तेमां श्रद्धा–ज्ञान मूकतां ते सम्यक् थाय छे, ने तेना आश्रये
क्षणेक्षणे निर्मळता वधती जाय छे, माटे धर्मी पोताना श्रद्धा–ज्ञान परने समर्पण नथी करता, पोते पोताना
आत्माने ज समर्पण करे छे.
एकाग्र थईने तारी पासेथी ज तारो आनंद ले. स्वभावमां एकाग्र थतां पर्याय पोते आनंदरूप परिणमी जाय
छे, एटले आत्माए आनंद दीधो अने आत्माए आनंद लीधो–एम कहेवाय छे, परंतु देनार ने लेनार कांई
जुदा नथी.
मात्र देखनार ज छे पण तेनो लेनार–देनार नथी,–जेम आंख बहारना द्रश्योनी मात्र देखनारी ज छे, तेनी लेनारी के
देनारी नथी तेम.