Atmadharma magazine - Ank 176
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः १०ः आत्मधर्मः१७६
पर्यायनो भेद पाडीने लक्षमां लेतां रागनो विकल्प थाय छे, ने तेमां स्वरूपनुं दान मळतुं नथी. स्वरूपनुं दान लेवा माटे
स्वरूपनी सन्मुख थवुं जोईए. चिदानंद स्वभावनी सन्मुख थईने लीन थतां स्वरूपना श्रद्धा–ज्ञान–आनंद वगेरेनुं
दान मळे छे; अने ते दाननो लेनार आत्मा ज छे एटले आत्मा पोते ज ते स्वरूपे थई जाय छे.–आवो आत्मानो
स्वभाव छे.
प्रश्नः– आत्मा क्यां हशे?
उत्तरः– ज्यांंथी आवो प्रश्न ऊठे छे त्यां ज आत्मा छे. ‘आत्मा क्यां हशे?’ एवो प्रश्न पूछनार पोते ज
आत्मा छे. आत्मा विना ए प्रश्न कोण पूछे? आत्मानी भूमिकामां ज ए प्रश्न ऊठे छे.
वळी ‘आत्मा क्यां हशे?’ एम प्रश्न पूछयो तेमां ज ए वात आवी जाय छे के तेनो उत्तर समजवानी ताकात
पोतामां छे.
‘आत्मा क्यां हशे?’ ते प्रश्नना उत्तरमां ज्ञानी एम कहे छे के “आ जे जाणनार–देखनार छे ते ज आत्मा
छे,”–अने प्रश्न पूछनारने आवो उत्तर लक्षमां आवे छे के ज्ञानीए मने आम कह्युं; जे ज्ञानवडे ते लक्षमां आवे छे ते
ज्ञानमां ज आत्मा छे, माटे हे भाई! तुं पोते ज आत्मा छो; माटे तारा ज्ञानमां ज आत्माने शोध. आ देह ते तुं नथी,
देहमां शोध्ये आत्मा नहि मळे. देह तो जड, रूपी अने द्रश्य छे, तेनाथी जुदो चेतन, अरूपी अने द्रष्टा आत्मा छे; देह
विनाशी छे, आत्मा अविनाशी छे; देह इन्द्रियगोचर छे, आत्मा इन्द्रियगोचर नथी पण अतीन्द्रिय छे; देह संयोगी
कृत्रिम वस्तु छे, आत्मा असंयोगी स्वाभाविक वस्तु छे. बधायने जाणनार ‘आ जाणनारो हुं ज छुं’–एम पोताने
नथी जाणतो–ए आश्चर्य छे!! जाणनार पोते पोताने ज नथी जाणतो, पोते पोताने ज भूली जाय छे, ए एक मोटी
भ्रमणा छे, ने ते भ्रमणाने लीधे ज संसारदुःख छे.
एक वार दस मूर्खाओ एक गामथी बीजे गाम जता हता. रस्तामां एक नदी आवी; नदी पार करीने
सामे कांठे आव्या, त्यां एक माणस बोल्यो के आपणामांथी कोई डूबी तो नथी गयुं ने?–चालो संख्या गणी
जोईए. एम कहीने संख्या गणवा मांडी–‘एक, बे, त्रण, चार, पांच, छ, सात, आठ ने नव!’ तरत ज तेने
ध्रासको पडयो के अरर! आपणामांथी एक जण डूबी गयो! पछी बीजो मूर्खो गणवा ऊभो थयो. एम एक पछी
एक बधाय मूरखाओए गण्या, तो नव ज थया.–केमके दरेक गणनारो पोते पोताने ज गणतां भूली जतो हतो.
बधा भेगा थईने विमासणमां पडी गया के एक जण डूबी गयो, हवे शुं करवुं? तेओ गडमथल करता हता त्यां
कोई डाह्यो मुसाफर त्यांथी नीकळ्‌यो, ते आ मूरखाओनी गडमथलनुं कारण समजी गयो, अने कह्युंः भाईओ!
धीरा थाओ..शांत थाओ..तमारामांथी कोई खोवाणुं नथी...चालो, बधा एक साथे लाईनमां ऊभा
रहो..जुओ...आ एक...आ बे...आ त्रण...चार...पांच...छ.. सात...आठ...नव ने आ...दस! तमे दसेदस पूरेपूरा
छो...ए जाणीने मूरखाओनी भ्रमणा टळी ने शांति थई. तेमने ख्याल आव्यो के अरे! पोते पोताने ज गणता
भूली जता हता तेथी ‘नव’ थता हता ने एक जण खोवाई जवानी भ्रमणा थई हती, एटले ‘अपने को आप
भूलके हैरान हो गया.’
ते दस मूरखाओनी जेम अज्ञानी जीवो पोते पोताना स्वरूपने भूली जाय छे. आ शरीर, आ राग–एम
लक्षमां ल्ये छे, पण तेने जाणनारो हुं ज्ञायक छुं–एम पोते पोताने स्वसंवेदनथी लक्षमां लेतो नथी; तेथी रागादिमां ने
शरीरादिमां ज पोतापणानी भ्रांतिथी ते हेरान थाय छे. ज्ञानी तेने तेनुं स्वरूप बतावतां कहे छे के अरे जीव! तुं शांत
था...धीरो था...ने धीरो थईने तारा अंतरमां जो...तारुं आनंदस्वरूप तो रागथी ने देहथी अत्यंत भिन्न ज्ञान ने
आनंदस्वरूप ज छे. ए प्रमाणे अंतर्मुख थईने आत्माने जाणतां ज भ्रमणा टळीने जीव आनंदित थाय छे. त्यारे तेने
एम पण थाय छे के अरे! अत्यार सुधी मारा पोताना ज अस्तित्वने भूलीने हुं भ्रमणाथी दुःखी थयो, ‘अपने को
आप भूल के हैरान हो गया.’
(द्रष्टांतमां मूरखाओ दस हता ने डाह्यो एक हतो; तेम जगतमां अज्ञानी जीवो घणा छे, ने ज्ञानी तो कोई
विरल ज होय छे.)
अज्ञानी पोताना आत्माने भूलीने परमां आत्मा शोधे छे; पण परमां तो आत्मानो अभाव छे. अहीं