Atmadharma magazine - Ank 176
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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जेठः २४८४ः ११ः
तो कहे छे के रागमां पण आत्मानो अभाव छे. रागादि रहित सम्यग्दर्शनादि निर्मळ पर्यायोमां ज आत्मानो
सद्भाव छे, केमके निर्मळ पर्याय ज आत्माना स्वभाव साथे अभेद थाय छे, राग के शरीर साथे आत्मानी
अभेदता नथी. राग संप्रदान थईने आत्माना सम्यग्दर्शनादिने धारी राखे, के आत्मा संप्रदान थईने रागने
धारी राखे–एम नथी; ए ज प्रमाणे आत्मा संप्रदान थईने शरीरने धारी राखे, के शरीर संप्रदान थईने
आत्माने धारी राखे–एम पण नथी. आत्मा संप्रदान थईने पोतानी निर्मळ पर्यायने धारी राखे छे. आवा
आत्माने समज्या वगर सुख थतुं नथी. आवा आत्मस्वभावने समजवो ते ज जन्ममरणना दुःखथी छूटीने
सुखी थवानो रस्तो छे. अंतरना अचिंत्य रस्ता ज्ञानीओए प्रगट करीने बताव्या छे...अहो! मुक्तिना मार्ग
संतोए सुगम करी दीधा छे. संतोनी बलिहारी छे!!
जेम तीर्थंकर भगवानना दिव्यध्वनिने झीलनारा उत्कृष्ट पात्र गणधरदेव छे, तेम चैतन्य प्रभुना
केवळज्ञानादि निर्मळभावोने झीलवानी पात्रता आत्मामां ज छे. आत्मा पोते ज पोताना निर्मळ भावोने
लेवाना पात्ररूप संप्रदान छे. आत्माना धर्मने रहेवा माटे रागादि के शरीर ते संप्रदान नथी, तेम ज आत्मा ते
रागादिनुं संप्रदान नथी. जेम आंबो तो केरी ज आपे, आंबो कांई आकोलीया न आपे; केमके आंबो केरीनुं ज
संप्रदान छे, आकोलीयानुं संप्रदान आंबो नथी; तेम आत्मामां एकाग्र थतां आत्मा तो निर्मळ पर्यायो ज आपे,
आत्मा कांई विकार न आपे, केमके आत्मामां निर्मळ पर्यायोनुं ज संप्रदान थवानो स्वभाव छे, विकारनुं
संप्रदान थवानो आत्मानो स्वभाव नथी. आ रीते निर्मळ पर्यायने ज आपे ने तेने ज ल्ये एवो आत्मानो
स्वभाव छे. ए प्रमाणे ज्ञान–आनंद वगेरे बधाय गुणोमां पण एवो स्वभाव छे के पोतपोताना स्वभावथी
निर्मळ पर्याय ज आपे, ने तेने ज पोते ल्ये.
जे ज्ञाननो उघाड एकला परलक्षे ज काम करे ते ज्ञान मिथ्या छे, ते मिथ्याज्ञान खरेखर ज्ञानस्वभावे
दीधेलुं नथी, तेम ज ज्ञानस्वभाव तेनो पात्र (लेनार) पण नथी. स्वज्ञेयने पकडीने केवळज्ञानादिरूपे परिणमे ते
सम्यग्ज्ञान छे, एवुं ज्ञान देवानो ने तेने ज लेवानो आत्माना ज्ञानगुणनो स्वभाव छे. वाणी तो जड छे, ते
वाणीद्वारा ज्ञान देवातुं नथी के ज्ञान तेने लेतुं नथी, तेम ज ते वाणी तरफना विकल्पद्वारा पण ज्ञान देवातुं नथी
के ज्ञान ते विकल्पने लेतुं नथी. आत्मा पोते ज पोताना ज्ञानस्वभावमांथी ज्ञान आपे छे, ने ते निर्मळ ज्ञानने
ज लेवानो ज्ञानगुणनो स्वभाव छे. आ सिवाय अज्ञान साथे ज्ञानस्वभावने कांई लेवा–देवा नथी. आत्मा साथे
अभेदपणुं करीने जे ज्ञान प्रगटयुं तेनी साथे ज आत्माने लेवादेवा छे, ते ज्ञान टकीने केवळज्ञान थई जशे.
एकला पराश्रये वर्ततुं ज्ञान आत्मा साथे टकी नहि शके, ते हणाई जशे. माटे हे भाई! जो तारे तारा ज्ञानने
टकाववुं होय–विकसाववुं होय तो आत्मामां तेने समर्पण कर! जेम सर्वज्ञभगवान पासे जईने
अर्धं समर्पयामि
स्वाहा करे छे, तेम आ सर्वज्ञस्वभावी आत्मा पासे जईने–तेमां ज अंतर्मुख थईने–ज्ञानं समर्पयामि स्वाहा कर,
तो तने सर्वज्ञता प्रगटी जशे. ते सर्वज्ञताने देवानो ने ते सर्वज्ञताने लईने तेनुं संप्रदान थवानो तारा
ज्ञानगुणनो स्वभाव छे.
ज्ञाननी जेम श्रद्धागुणमां पण एवो ज स्वभाव छे के सम्यग्दर्शनरूप भावने आपे, अने पोते ज तेने
ल्यो;– एटले तेनुं संप्रदान थाय. पण मिथ्याश्रद्धा आपे के ल्ये एवो श्रद्धागुणनो स्वभाव नथी. स्वसन्मुख थईने
आत्मस्वभावनी श्रद्धा करी ते देवा–लेवानो स्वभाव होवाथी आत्मा साथे सदाय टकी रहेशे; अर्थात् श्रद्धागुण
सदाय सम्यक्त्व पर्याय आप्या ज करे छे ने पोते संप्रदान थईने तेने लीधा ज करशे.
ए ज प्रमाणे, ज्ञान अने श्रद्धानी जेम चारित्रगुणनो पण एवो ज संप्रदान स्वभाव छे के पोताना अनाकुळ
शांत भावने आपे ने तेने ज पोते ल्ये. ए सिवाय शांतिथी विपरीत आकुळता–राग–द्वेषरूप भावने देवानुं के लेवानुं
चारित्रगुणनुं स्वरूप नथी. ते रागादिभावो आत्मा साथे अभेद थईने टकता नथी, ने शांत अ–रागभाव तो
आत्मामां लीनता करीने टके छे.
वळी आनंदनो पण एवो ज स्वभाव छे के पोते पोताने आनंद आपे ने पोते ज संप्रदान थईने ते ल्ये, पण
परचीजमांथी आनंद ल्ये, एवुं आनंदगुणनुं स्वरूप नथी. तेम ज आनंदगुणनुं एवुं स्वरूप नथी के ते दुःख आपे के
दुःख ल्ये. दुःखनुं संप्रदान थवानो तेनो स्वभाव ज नथी.