तेमां दाता–पात्र–दान अने विधि ए चारे अभेद छे. भगवान आत्मा पोते दातार छे, ते दातारवडे देवामां
आवती रत्नत्रयपर्यायने लेनार पात्र पण पोते ज छे, देवा योग्य जे निर्मळपर्याय ते पण पोताथी अभिन्न
छे, अने पोतामां एकाग्रतारूप विधि वडे पोते ते दान आपे छे तेथी तेनी विधि पण पोतामां ज छे.–आत्माना
आवा संप्रदान स्वभावने जे जाणे तेनामां एवी पात्रता प्रगटे के पोताना स्वभाव पासेथी सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्रनां दान ल्ये. पोताना स्वभावथी देवामां आवतुं आवुं दान लेवानो ज आत्मानो स्वभाव छे. आ
सिवाय बहारमां आहार देवा–लेवानी क्रिया तो परमाणुओना परावर्तनना नियम अनुसार थया करे छे, ने ते
ते वखतनी भूमिका अनुसार ते ते प्रकारनो शुभभाव पण धर्मीने आवे छे. पण धर्मी पोताने ते रागनुं के
आहारनुं संप्रदान नथी मानतो, ते तो सम्यग्दर्शनादि निर्मळ भावोना संप्रदानपणे ज परिणमे छे, ने ते ज
धर्म छे.
जुगलीया–भोगभूमिमां अवतार थाय छे. अहीं तो जेनाथी संसारनो अंत आवे ने मोक्षनी प्राप्ति थाय एवा
धर्मनी वात छे. अज्ञानी घडीए घडीए (–पर्याये पर्याये) पोताना स्वभावने भूलीने मिथ्यात्वभावथी विकारने
ज प्राप्त करे छे; धर्मात्मा ज्ञानी तो पोताना स्वभावने ओळखीने तेमांथी घडीए–घडीए क्षणे–क्षणे पर्याये–पर्याये
निर्मळ भावने ज ल्ये छे. निर्मळ पर्यायने देवानी अने तेने ज लेवानी आत्मानी संप्रदानशक्ति छे; पर वस्तुनुं
कांई लेवानी के परने कांई देवानी ताकात आत्मामां–द्रव्यमां गुणमां के पर्यायमां नथी. अने रागनो देनार के
रागनो लेनार एवो पण आत्मानो स्वभाव नथी. पर्यायमां क्षणिक रागादि थाय तेने ज ग्रहण करनारो पोताने
जे माने ते पोताना संप्रदान–स्वभावने जाणतो नथी. भाई, तारो स्वभाव परिणमीने तने केवळज्ञान आपे
अने तेने तुं ले एवा संप्रदाननी ताकातवाळो तारो आत्मा छे. अज्ञानीए पोताना आत्माने एवो मान्यो छे के
जाणे ते रागनुं ज पात्र होय! तेने समजावे छे के अरे भगवान! तारा आत्मामां तो रागने तोडीने पोते
केवळज्ञाननुं पात्र थाय एवी ताकात छे...तेने ओळख.
छे ते तो तरत ज स्वीकार करे छे के अमे राजा थवाने पात्र छीए, अमारी ताकातथी अमे राज चलावशुं. तेम
अहीं गरीब एटले के अज्ञानी जीवने तेनुं चैतन्यराज मळवानी वात आचार्यदेव संभळावे छे के ‘अरे जीव!
तारामां केवळज्ञानपदनुं संप्रदान थवानी ताकात छे, ज्ञानसाम्राज्यने मेळवीने तेने संभाळवानी तारी ताकात
छे.’ त्यां जे एम कहे के ‘अरे! अमे तो अज्ञानी–पापमां डुबेला, अमारामां केळवज्ञान लेवानी ने परमात्मा
थवानी पात्रता क्यांथी होय?’–तो ते जीव पुरुषार्थहीन छे; अने जे पुरुषार्थवान छे–आत्मानो उल्लासी छे, ते
तो ए वात सांभळतां तरत ज स्वीकार करे छे के अहो! अमारो आत्मा केवळज्ञान लेवानो पात्र छे, केवळज्ञान
साम्राज्यने झीलवानी अमारी पर्यायमां ताकात छे, अमारी ताकातथी अमे केवळज्ञानने लेशुं.–आम
आत्मस्वभावनो भरोसो करीने तेमां लीन थईने धर्मी पोताना आत्माने केवळज्ञान वगेरेना संप्रदानरूपे
परिणमावे छे. बधाय जीवोमां आवी ताकात छे, जे तेने स्वीकारे छे तेने तेनुं परिणमन थाय छे,–‘सर्व जीव छे
सिद्धसम, जे समजे ते थाय’ एनी जेम.
भवथी थाकीने आत्मानी भूख जेने नथी लागी तेने तो, आत्माना आनंदनी आ अपूर्व वात समजवामां पण
रस नथी आवतो. पण जे जीव भवदुःखथी थाकी गयो छे, अरेरे! आ आत्मा हवे भवदुःखथी छूटीने चैतन्यनी
शांति क्यारे पामे!–एम जेने आत्मशांतिनी तीव्र भूख लागी छे, ते तो अपूर्व रुचिथी श्रवण करीने जरूर आ
वात समजी जाय छे,