पण आत्मा ज छे. जुओ, आ दातारे सुपात्रदान दीधुं. अहो! आत्माना अतीन्द्रिय आनंदनां दान! एना करतां बीजुं
कयुं श्रेष्ठ दान होय? निर्मळ ज्ञान–आनंदमय पर्याय प्रगटे तेनो दातार पण पोते, ते लेनार पण पोते ज,–आवी
शक्ति आत्मामां त्रिकाळ छे.
सामे जो..तो तने आनंदना निधाननुं दान मळे.
आवा स्वभावने साधता साधकने कषायोनी अतिशय मंदता सहेजे थई जाय छे, पण ते मंद कषायना भावने पण
देवानो के लेवानो पोतानो स्वभाव मानता नथी, स्वभावना आश्रये जे अकषायी–वीतरागी भाव थया छे तेनो ज
देनार ने तेनो ज लेनार पोतानो आत्मा छे एम साधकधर्मी जाणे छे. त्रिकाळी स्वभाव तो रागनुं संप्रदान नथी, अने
ते स्वभावना आधारे थयेली पर्याय पण रागनुं संप्रदान थती नथी. आम द्रव्यथी तेमज पर्यायथी बंने प्रकारे भगवान
आत्मा विकारनुं संप्रदान नथी पण वीतरागी भावनुं ज संप्रदान छे. ज्यां शुद्ध द्रव्यनो आश्रय कर्यो त्यां पर्यायमांथी
विकारनी योग्यता टळी गई ने अविकारी आनंदनी ज योग्यता थई, ते आनंदनी ज पात्र थई. जेम उत्तम वस्तु
राखवानुं पात्र पण उत्तम होय छे, सिंहणनुं दूध सोनाना पात्रमां ज रहे छे, तेम जगतमां महा उत्तम एवो जे
अतीन्द्रिय आनंद तेनुं पात्र पण उत्तम ज छे,–कयुं पात्र छे? के आत्माना स्वभाव तरफ वळेली परिणति ज ते
आनंदनुं पात्र छे. आत्मामां ज एवी उत्तम पात्रशक्ति (संप्रदानशक्ति) छे के पोते परिणमीने पोताना अतीन्द्रिय
आनंदने पोतामां झीली शके.
पोताना आत्मामांथी ज्ञान के आनंद काढीने कांई शिष्यने आपी देता नथी, ने शिष्यनो आत्मा कांई पोताना ज्ञान के
आनंद गुरु पासेथी लेतो नथी, गुरु आपे ने पात्र शिष्य ल्ये–ए वात व्यवहारनी छे; तोपण–श्री गुरुना उपदेशद्वारा
आत्मस्वभाव समजीने शिष्यने ज्यां अपूर्व आनंदनी प्राप्ति थई त्यां रोमरोममां गुरु प्रत्येना अपार विनयथी तेनो
आत्मा ऊछळी जाय छे...निश्चय प्रगटतां तेनो व्यवहार पण लोकोत्तर थई जाय छे...ने श्रीगुरुना अनंत उपकारने
व्यक्त करतां कहे छे के अहो प्रभो! आ पामरने आपे ज ज्ञान अने आनंदनां दान दीधां..अमारा आनंदने भूलीने
अनंत संसारमां रखडता हता, तेनाथी छोडावीने आपे ज अमने आनंद आप्यो...घोर भवभ्रमणथी आपे ज अमने
बचाव्या..आपे ज कृपा करीने संसारथी ऊगार्या..हे नाथ! आपना अनंत उपकारनो बदलो कई रीते वाळीए? आम
अपार विनयपूर्वक गुरुना चरणे अर्पाई जाय छे. निश्चयनी साधकदशामां देव–गुरु प्रत्ये आवो विनय वगेरे व्यवहार
सहेजे होय छे. जो आत्मामांथी आवो विनय न ऊगे तो ते जीवने निश्चयनुं परिणमन पण थयुं नथी एम समजवुं.
गुरुथी ज्ञान थतुं नथी–एम कहीने गुरुनो विनय छोडी द्ये ते तो मोटो स्वच्छंदी छे, आनंदने झीलवानी पात्रता तेनामां
जागी नथी. अहो! आ तो निश्चय–व्यवहारनी संधिपूर्वकनो अचिंत्य लोकोत्तर मार्ग छे. साधकदशा शुं चीज छे तेनी
लोकोने खबर नथी. साधकने तो बधा पडखांनो विवेक वर्ततो होय छे, गणधर जेवो विवेक सम्यग्द्रष्टिने प्रगटयो होय
छे. कह्युं छे के–
हिरदे हरखी महा मोहको हरतु
आपु ही में आपनो सुभाउ ले धरतु है.
जैसे जलकर्दम कतकफल भिन्न करे,
तैसे जीव अजीव विलछनु करतु