ः १८ः आत्मधर्मः १७६
परिणाम नथी पण माटीनुं परिणाम छे, तेथी घडो ते माटीनुं कर्म छे.
(१४४) प्रश्नः– ‘क्रिया’ शुं छे?
उत्तरः– कर्तानी
जे परिणति ते क्रिया छे. परिणति एटले परिणामनो पलटो, ते क्रिया छे. ते पण कर्ताथी भिन्न
होती नथी. कुंभारनी क्रिया कुंभारमां छे, माटीमां नथी.
ना; कर्ता, कर्म अने क्रिया ए त्रणे वस्तुपणे भिन्न नथी, एक ज वस्तुमां होय छे. कर्ता एक वस्तु अने
तेनुं कार्य बीजी वस्तुमां–एम कदी बनतुं नथी. तेमज बे द्रव्यो भेगां थईने एक कार्य करता नथी, अने
एक द्रव्य बे कार्यने करतुं नथी. जेमके–
कर्ता कुंभार अने तेनुं कार्य माटीमां–एम बनतुं नथी; तेमज कुंभार अने माटी ए बंने भेगां
(एकमेक) थईने घडारूप कार्यने करे–एम पण नथी; अने एक कुंभार कर्ता थईने पोतानी इच्छाने
तेमज घडाने–एम बे कार्यने करे एम पण बनतुं नथी.
(१४६) प्रश्नः– बे माणसो भेगा थईने एक मोटो पत्थर ऊपाडे छे–त्यां ते बंनेए भेगा थईने एक कार्य ऊपजाव्युं के
नहि?
उत्तरः– ना; बंने माणसोनुं कार्य (इच्छा तथा बळ) पोतपोतानामां ज छे, ने पत्थर ऊंचो थवानुं कार्य
पत्थरमां थयुं छे. बे माणसो अने पत्थर त्रणेनुं कार्य भिन्न भिन्न छे.
(१४७) प्रश्नः– आत्मा अने जड कर्म ए बंनेए भेगां थईने विकार कर्यो के नहि?
उत्तरः– ना;
विकारनो कर्ता ते आत्मा एकलो ज छे, ने जडकर्मनुं कार्य ते कर्ममां ज छे, आत्मा अने जडकर्म
बंनेनुं भिन्न भिन्न परिणमन छे; बंने एक थईने कदी परिणमता नथी; माटे रागादि भावकर्मनो
कर्ता आत्मा ज छे– एम समजवुं.
आम समजवाथी जड–चेतननुं भेदज्ञान थाय छे. भेदज्ञान थतां ज पर साथेना कर्ताकर्मपणानी
बुद्धिरूप अज्ञाननो नाश थई जाय छे; अज्ञाननो नाश थतां मिथ्यात्वादिनुं बंधन थतुं नथी, एटले
अल्पकाळमां मोक्ष थाय छे. आ रीते अनुभवमां झूलता संतोए भेदज्ञान कराव्युं छे.
संतोने जंगलमां आत्माना अनुभवमां झूलतां एवी ऊर्मि आवी के अहो! आत्मानो आवो
ज्ञानस्वभाव जगतना जीवो समजे...तो तेमनुं अज्ञान टळे. अहो! आवो भगवान आत्मा परथी
अत्यंत जुदो, तेने एक वार पण जो परमार्थद्रष्टिथी ग्रहण करे तो जीवने अज्ञाननो एवो नाश थाय के
ते ज्ञानघन आत्माने फरीने बंधन न थाय, माटे हे भव्य जीवो! आत्माने परना कर्तृत्वथी रहित
ज्ञायकस्वभावपणे ज देखो,–एवो संतोनो उपदेश छे.
–‘हवे अमारुं दिल बीजे क्यांय लागतुं नथी’
नियमसारना १३०मा कलशमां श्री पद्मप्रभ
मुनिराज कहे छेः
जेम अमृत भोजना स्वादने जाणीने देवोनुं दिल
अन्य भोजनमां लागतुं नथी, तेम ज्ञानात्मक सौख्यने
जाणीने अमारुं दिल ते सौख्यना निधान चैतन्यमात्र –
चिंतामणि सिवाय बीजे क्यांय लागतुं नथी.