जानन्न द्रश्यते रूपं ततः केन ब्रवीम्यहम् ।।१८।।
तेने कांई खबर नथी के आ मारा उपर राग के द्वेष करे छे. मारा अभिप्रायने ते जाणतुं ज नथी, तो हुं तेनी साथे शुं
बोलुं? अने जे जाणनारा छे एवा अन्य जीवोनुं रूप तो मने इन्द्रियज्ञान द्वारा देखातुं नथी, माटे बहारमां हुं कोनी
साथे बोलुं? आत्मा तो इन्द्रियनो विषय बनतो नथी ने जड अचेतन शरीर साथे बोलुं ते तो व्यर्थ बकवाद छे, माटे
बाह्य प्रवृत्ति ज बधी व्यर्थ छे, तेथी इन्द्रियो तरफनो वेपार छोडीने हुं मारा ज्ञानने अंतर्मुख करुं छुं.–एम ज्ञानी
भावना भावे छे. आ रीते बाह्य विषयो तरफनुं वलण छोडीने ज्ञानने आत्मामां एकाग्र करवुं तेमां ज शांति अने
समाधि छे. ज्ञानने बाह्य विषयोमां भटकाववुं ते तो अशांति अने व्यग्रता छे.
ज शांति अने अनाकुळता ज छे; माटे मारे मारा स्वभावमां ज अंतर्मुख थवा जेवुं छे.–आवा निर्णयना जोरे अंतर्मुख
तो कांई समजवानी ताकात नथी, तो तेनी साथे हुं शुं वात करुं? अने सामानो अतीन्द्रिय आत्मा तो कांई
इन्द्रियज्ञानथी देखातो नथी; माटे परने समजाववानी के पर साथे वात करवानी बाह्यवृत्ति छोडीने पोताना
आत्मामां ज अंतर्मुख थवा जेवुं छे. मारे तो मारा आत्माने लक्षमां लईने ठरवानुं छे–एम ज्ञानी भावना
भावे छे.