Atmadharma magazine - Ank 176
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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जेठः २४८४ः १९ः
– परम शांति दातारी –
अध्यात्म भावना
भगवानश्री पूज्य पादस्वामी रचित ‘समाधिशतक’
उपर परम पूज्य सद्गुरुदेवश्री कानजीस्वामीना अध्यात्मभावना
–भरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार.
देहादिथी भिन्न चिदानंदस्वरूप आत्माना भानपूर्वक, बाह्य पदार्थो तरफनी प्रवृत्ति छोडीने अंतरमां ठरवा माटे
ज्ञानी एम विचारे छे के–
यन्मया द्रश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा ।
जानन्न द्रश्यते रूपं ततः केन ब्रवीम्यहम् ।।१८।।
इन्द्रियज्ञाननो वेपार बाह्य पदार्थोमां ज छे; इन्द्रिय–ज्ञानद्वारा बाह्यमां जे कांई देखाय छे ते तो अचेतन छे,
शरीरनुं रूप वगेरे देखाय छे ते तो अचेतन छे, ते जरा पण जाणतुं नथी. हुं तेना उपर राग करुं के द्वेष करुं तो पण
तेने कांई खबर नथी के आ मारा उपर राग के द्वेष करे छे. मारा अभिप्रायने ते जाणतुं ज नथी, तो हुं तेनी साथे शुं
बोलुं? अने जे जाणनारा छे एवा अन्य जीवोनुं रूप तो मने इन्द्रियज्ञान द्वारा देखातुं नथी, माटे बहारमां हुं कोनी
साथे बोलुं? आत्मा तो इन्द्रियनो विषय बनतो नथी ने जड अचेतन शरीर साथे बोलुं ते तो व्यर्थ बकवाद छे, माटे
बाह्य प्रवृत्ति ज बधी व्यर्थ छे, तेथी इन्द्रियो तरफनो वेपार छोडीने हुं मारा ज्ञानने अंतर्मुख करुं छुं.–एम ज्ञानी
भावना भावे छे. आ रीते बाह्य विषयो तरफनुं वलण छोडीने ज्ञानने आत्मामां एकाग्र करवुं तेमां ज शांति अने
समाधि छे. ज्ञानने बाह्य विषयोमां भटकाववुं ते तो अशांति अने व्यग्रता छे.
एकवार द्रढ निर्णयथी पोताना वेदनमां ज एम भासवुं जोईए के अरे! बाह्य वलणमां क्यांय कोई पण
विषयमां रंचमात्र सुख मने वेदातुं नथी, बाह्य वलणमां तो एकली आकुळता ज वेदाय छे, ने अंतर तरफना वलणमां
ज शांति अने अनाकुळता ज छे; माटे मारे मारा स्वभावमां ज अंतर्मुख थवा जेवुं छे.–आवा निर्णयना जोरे अंतर्मुख
थतां विकल्प तुटीने अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थाय छे.
* * * * *
(वीर सं. २४८२ जेठ सुद ९–१० रविवार)
समाधि केम थाय एटले आत्माने शांति केम थाय? तेनी आ वात छे. बर्हिमुखपणुं छोडीने एकदम
अंतर्मुख थवानी आ वात छे. इन्द्रियज्ञाननो वेपार बाह्यमां छे ने तेनाथी तो जड शरीर देखाय छे, ते जडमां
तो कांई समजवानी ताकात नथी, तो तेनी साथे हुं शुं वात करुं? अने सामानो अतीन्द्रिय आत्मा तो कांई
इन्द्रियज्ञानथी देखातो नथी; माटे परने समजाववानी के पर साथे वात करवानी बाह्यवृत्ति छोडीने पोताना
आत्मामां ज अंतर्मुख थवा जेवुं छे. मारे तो मारा आत्माने लक्षमां लईने ठरवानुं छे–एम ज्ञानी भावना
भावे छे.