Atmadharma magazine - Ank 176
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः २०ः आत्मधर्मः १७६
अहो! आ मारो आत्मा तो ज्ञान ज छे; तेने ज्ञानस्वभावथी बहार लक्ष जईने जे विकल्प ऊठे ते विकल्प
निरर्थक छे. आत्मा तो इन्द्रियथी ग्राह्य नथी, इन्द्रियथी तो शरीर देखाय छे, ते शरीर तो अचेतन–जड छे, तेनामां
एवी ताकात नथी के मारा भावने जाणी शके. मारा भावने जाणनारो जे आत्मा छे ते तो इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य थतो
नथी; माटे इन्द्रिय तरफनो झूकाव छोडीने हुं तो स्वसन्मुख एकाग्र रहुं छुं. आ मारा आत्मा सिवाय बीजुं जे कांई छे
ते बधुंय माराथी बाह्य छे. ज्यारे इन्द्रियोथी बाह्य वेपार थाय छे त्यारे जीव तो तेनाथी देखातो नथी, ने जड देखाय छे
ते तो कांई समजतुं नथी, तो हुं कोनी साथे ज्ञानने जोडुं? कोनी साथे बोलुं? कोने समजावुं? जुओ, आ भेदज्ञान!
आवुं ज्ञान करे त्यां पर–तरफनुं जोर तूटी जाय. ज्ञानने अंतर्मुख करीने स्वसंवेदनथी पोते पोताने जाणवो–एवो आनो
अभिप्राय छे. पछी बहारमां वृत्ति जाय ने विकल्प ऊठे पण तेना अभिप्रायनुं जोर तो स्वसंवेदन तरफ ज छे. मारा
विकल्पथी कांई पर जीवो समजता नथी, तेमज ते विकल्प मने मारा स्वसंवेदनमां पण सहायक नथी,–आम जाणीने
धर्मी पोताना स्वभाव तरफ वळे छे, ने तेमां एकाग्र थाय छे–तेनुं नाम समाधि छे. जेने आवुं भेदज्ञान नथी ने ‘हुं
बीजाने समजावी दउं’ एवा अभिप्रायनुं जोर छे ते कदी बहिर्मुखपणुं छोडीने अंतर्मुख थतो नथी ने तेने राग–
द्वेषरहित समाधि थती नथी.
अरे, मारा चैतन्यस्वरूपथी बहार ज्यां जोउं छुं त्यां बहारमां तो जड अचेतन शरीरादि देखाय छे, ते
तो मडदुं छे, ते मडदा साथे हुं शुं बोलुं? अने चैतन्यस्वरूप जीव अमूर्त छे ते तो बहारमां देखातो नथी, जे
देखातो नथी तेनी साथे पण हुं शुं बोलुं? एटले के बहारमां लक्ष ज करवा जेवुं नथी; हुं तो ज्ञायकस्वरूप ज छुं
ने मारा ज्ञायक–स्वरूपमां ज हुं रहीश. विकल्प ऊठे ने पर लक्ष जाय के परने समजाववानी वृत्ति ऊठे ते मारुं
स्वरूप नथी, तेनाथी मने लाभ नथी; तेमज बीजा जीवोने पण वाणीथी के वाणी तरफना लक्षथी लाभ नथी, ते
जीवो पण परलक्ष छोडीने पोताना ज्ञायक–स्वरूपमां वळशे त्यारे ज तेमने लाभ थशे.–एम जाणीने ज्ञानी
अंतरमां ठरे छे.
ज्ञायकतत्त्वमांथी कांई वाणीनो ध्वनि नथी ऊठतो, ते वाणीनो ध्वनि तो जडपरमाणुओमांथी ऊठे छे. वाणी
तरफनो विकल्प ऊठे ते पण ज्ञायकतत्त्वमांथी नथी ऊठतो, ज्ञान पर लक्षमां अटकतां विकल्प ऊठयो छे, ते ज्ञाननुं
स्वरूप नथी. आवा ज्ञानस्वरूपने नक्की करे तो अंदर अपूर्व शांति ने समाधि थाय.
।। १८।।
बाह्य विकल्प छोडीने, अंतरनो विकल्प पण छोडवा माटे धर्मी विचारे छे के–
यत्परेः प्रतिपाद्योऽहं यत्परान् प्रतिपादये ।
उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः ।।१९।।
हुं उपाध्यायादि परवडे प्रतिपाद्य थाउं एटले के बीजावडे हुं समजुं, के हुं बीजाने प्रतिपादन करीने
समजावुं,– आवो जे विकल्प छे ते मारी उन्मत्त चेष्टा छे, केमके खरेखर हुं निर्विकल्प छुं, विकल्प वडे के वचन वडे
ग्राह्य थाय एवुं मारुं स्वरूप नथी.–आ रीते ज्ञानी अंतरंग विकल्पोने पण छोडीने निर्विकल्प स्वसंवेदनमां ठरवा
मांगे छे.
चैतन्यस्वरूप आत्मा पोते पोताथी ज स्वसंवेद्य छे, पोतानी जागृति वगर बीजा कोईथी समजे एवो नथी.
माटे ज्ञाता–स्वभावथी बहार वृत्ति जाय ने बीजा पासेथी समजवानी के बीजाने समजाववानी वृत्ति धर्मीने ऊठे ते पण
मोहनी चेष्टा होवाथी तेने अहीं उन्मत्त चेष्टा कही छे. ‘उन्मत्त चेष्टा’ नो अर्थ एम न समजवो के जे उपदेश करे ते
बधा अज्ञानी छे.–उपदेशनी वृत्ति तो ज्ञानीने आवे; पण उपदेशमां भेदथी प्रतिपादन थाय छे, ते भेदद्वारा अभेद
आत्मानुं ग्रहण थतुं नथी माटे भेदनी वृत्ति ऊठे ते उन्मत्त चेष्टा छे एटले के मोहनो उन्माद छे; ते मारा ज्ञाननुं स्वरूप
नथी. मारा आत्मानुं स्वरूप तो निर्विकल्प–अतीन्द्रियज्ञानथी ग्राह्य छे, विकल्पथी ग्राह्य नथी–एम जे नथी जाणतो, ने
बीजाना शब्दोथी हुं समजी जाउं के हुं विकल्पवडे बीजाने समजावी दउं–एम माने छे तेने तो मिथ्यात्वनो मोटो उन्माद
छे. धर्मी जाणे छे के वाणीथी के विकल्पथी आत्मा ग्राह्य थाय तेवो नथी; वाणीमां ने विकल्पमां तो भेदथी प्रतिपादन
आवशे. “आत्मादर्शन–ज्ञान–चारित्रस्वरूप छे” एम प्रतिपादन करे तो तेमां पण भेद छे, ते भेदना लक्षे आत्माना
निर्विकल्प