Atmadharma magazine - Ank 176
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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जेठः २४८४ः २१ः
स्वरूपनुं ग्रहण थतुं नथी, माटे भेदनो विकल्प ऊठे ते पण मोहनी चेष्टा छे, मारा ज्ञायकतत्त्वमां ते विकल्पनो प्रवेश
नथी.
जुओ, आ अंतर्मुखद्रष्टिनो अभिप्राय! हुं तो ज्ञायक ज छुं, विकल्प के वाणी मारुं स्वरूप नथी. उपदेशनी वृत्ति
आवे ने वाणीनो धोध छूटतो होय ते वखते पण ज्ञानीने आवी ज्ञायकतत्त्वनी द्रष्टि छूटती नथी. अने जे विकल्प
ऊठयो छे तेने पण ज्ञानतत्त्वथी भिन्न, मोहनुं कार्य जाणे छे–ते अस्थिरतानी चेष्टा छे एम जाणे छे एटले तेनुं जोर
विकल्प उपर नथी जतुं पण ज्ञायकस्वभाव तरफ ज तेनुं जोर रहे छे. तेथी तेने विकल्प तूटीने स्वरूपमां स्थिरतारूप
समाधि थाय छे.
अहो, आचार्यदेव कहे छे के परम उपशांत चैतन्यतत्त्वना आनंदमांथी बहार नीकळीने अस्थिरतामां जे
विकल्पो ऊठे छे ते मारी उन्मत्त–चेष्टा छे. जुओ तो खरा! आ छठ्ठा–सातमा गुणस्थाने झूलता ने
पंचपरमेष्ठीपदमां भळेला एवा श्री पूज्यपाद स्वामी कहे छे के अरे! अमारा अतीन्द्रिय आनंदना वेदनमांथी
बहार नीकळीने परने समजाववानो विकल्प ऊठे ते पण निरर्थक उन्मत्तवत् चेष्टा छे. जे शुभ रागना विकल्पने
आचार्यदेव उन्मत्त चेष्टा कहे छे ते शुभरागथी अज्ञानी मूढजीवो संवर–निर्जरा थवानुं माने छे. अरे! वीतरागी
संतोए जेने उन्मत्तचेष्टा कीधी तेने मूढ जीवो धर्म माने छे, पण तेमनी ते मान्यता उन्मत्त जेवी छे. राग अने
धर्म वच्चेनो विवेक नहि जाणता होवाथी तेओ उन्मत्त जेवा छे. भगवान उमास्वामी तत्त्वार्थ सूत्रजीमां कहे छे के
सदसतोरविशेषाद्यद्रच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत्’ अर्थात् मिथ्याद्रष्टि जीव सत् अने असत्ने अविशेषपणे पोतानी
इच्छा प्रमाणे, उन्मत्तवत् ग्रहण करे छे, तेने सत्–असत्नो विवेक नथी तेथी तेनुं ज्ञान मिथ्या छे. जे जीव
शुभरागथी धर्म माने छे ते पण रागने अने धर्मने एकपणे माने छे एटले सत्–असत्ने एकपणे माने छे तेथी
ते मिथ्याद्रष्टि उन्मत्त छे. अहीं तो एवुं मिथ्यात्व टळ्‌या पछी पण. अस्थिरताना रागनी जे चेष्टा छे ते पण
निरर्थक होवाथी तेने उन्मत्त चेष्टा जाणीने, संतो ते छोडीने स्वरूपमां ठरवानी भावना भावे छे–तेनी वात छे.
।। १९।।
***
(वीर सं. २४८२ जेठ सुद ११ समाधिशतक गा. २०)
समकिती अंतरात्मा स्वसंवेदनथी पोताना निर्विकल्प आत्मस्वरूपने केवुं जाणे छे ते कहे छे–
यदग्राह्यं न गृह्णाति गृहीतं नापि मुंचति ।
जानाति सर्वथा सर्वं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ।।२०।।
अग्राह्य एवा क्रोधादि विकारी भावोने पोताना स्वरूपमां जे ग्रहतो नथी, अने गृहीत एवा पोताना अनंत
ज्ञानादिस्वरूपने जे कदी छोडतो नथी, जे सर्वथा सर्वने जाणे छे–एवो स्वसंवेद्य हुं छुं.–एम धर्मी जाणे छे.
हुं तो सदाय ज्ञान–दर्शन–आनंदस्वरूप ज छुं, शरीर–मन–वाणी–कर्म–राग–द्वेष वगेरेने मारा स्वरूपमां में कदी
ग्रह्या ज नथी, मारा ज्ञानस्वरूपथी ते जुदा ने जुदा ज छे. मारो सहजस्वभाव ज्ञान–आनंदस्वरूप छे तेने हुं कदी
छोडतो नथी; मारो आत्मा क्रोधादि स्वरूप नथी पण सर्वथा सर्वनो जाणनार ज छे.–आवो आत्मा ज हुं छुं–एम
अंतरात्मा पोताना स्वसंवेदनथी अनुभवे छे.
जुओ, आ समकितीनो आत्मा! समकिती पोताना आत्माने शरीररूप के रागादिरूप नथी मानतो, पण
ज्ञायकस्वरूप–आनंदस्वरूप ज माने छे. आत्मा गृहीत एवा पोताना सहज ज्ञानादि स्वरूपने छोडतो नथी.
ज्ञानादिने ‘गृहीत’ कह्या एनो अर्थ एम नथी के तेने आत्माए नवा ग्रहण कर्यां छे; परंतु अनादिथी ज आत्मा
ते ज्ञानादिस्वरूप ज छे, ते स्वरूपथी आत्मा कदी छूटतो नथी; अने क्रोधादिस्वरूप कदी थई जतो नथी. क्षणिक
पर्यायमां क्रोधादि छे पण ते पर्याय जेटलो ज आत्मा समकिती मानतो नथी, ते क्रोधादिने पोताना स्वरूपथी
बाह्य जाणे छे, ने ज्ञानआनंदमय स्वभावने ज ते पोताना अंर्तस्वरूपे ग्रहण करे छे. श्रद्धाज्ञानमां जे
चिदानंदस्वभावने ग्रहण कर्यो तेने धर्मी कदी छोडता नथी, अने क्रोधादिने पोताना स्वरूपमां एकमेक मानीने कदी
ग्रहण करता नथी, तेने पोताना स्वरूपथी जुदा ज जाणे छे. आ रीते उपयोगस्वरूप आत्माने क्रोधादिथी जुदो
अनुभववो ते अंतरात्मा थवानो उपाय छे.