नथी.
ऊठयो छे तेने पण ज्ञानतत्त्वथी भिन्न, मोहनुं कार्य जाणे छे–ते अस्थिरतानी चेष्टा छे एम जाणे छे एटले तेनुं जोर
विकल्प उपर नथी जतुं पण ज्ञायकस्वभाव तरफ ज तेनुं जोर रहे छे. तेथी तेने विकल्प तूटीने स्वरूपमां स्थिरतारूप
समाधि थाय छे.
पंचपरमेष्ठीपदमां भळेला एवा श्री पूज्यपाद स्वामी कहे छे के अरे! अमारा अतीन्द्रिय आनंदना वेदनमांथी
बहार नीकळीने परने समजाववानो विकल्प ऊठे ते पण निरर्थक उन्मत्तवत् चेष्टा छे. जे शुभ रागना विकल्पने
आचार्यदेव उन्मत्त चेष्टा कहे छे ते शुभरागथी अज्ञानी मूढजीवो संवर–निर्जरा थवानुं माने छे. अरे! वीतरागी
संतोए जेने उन्मत्तचेष्टा कीधी तेने मूढ जीवो धर्म माने छे, पण तेमनी ते मान्यता उन्मत्त जेवी छे. राग अने
धर्म वच्चेनो विवेक नहि जाणता होवाथी तेओ उन्मत्त जेवा छे. भगवान उमास्वामी तत्त्वार्थ सूत्रजीमां कहे छे के
‘
शुभरागथी धर्म माने छे ते पण रागने अने धर्मने एकपणे माने छे एटले सत्–असत्ने एकपणे माने छे तेथी
ते मिथ्याद्रष्टि उन्मत्त छे. अहीं तो एवुं मिथ्यात्व टळ्या पछी पण. अस्थिरताना रागनी जे चेष्टा छे ते पण
निरर्थक होवाथी तेने उन्मत्त चेष्टा जाणीने, संतो ते छोडीने स्वरूपमां ठरवानी भावना भावे छे–तेनी वात छे.
जानाति सर्वथा सर्वं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ।।२०।।
छोडतो नथी; मारो आत्मा क्रोधादि स्वरूप नथी पण सर्वथा सर्वनो जाणनार ज छे.–आवो आत्मा ज हुं छुं–एम
अंतरात्मा पोताना स्वसंवेदनथी अनुभवे छे.
ज्ञानादिने ‘गृहीत’ कह्या एनो अर्थ एम नथी के तेने आत्माए नवा ग्रहण कर्यां छे; परंतु अनादिथी ज आत्मा
ते ज्ञानादिस्वरूप ज छे, ते स्वरूपथी आत्मा कदी छूटतो नथी; अने क्रोधादिस्वरूप कदी थई जतो नथी. क्षणिक
पर्यायमां क्रोधादि छे पण ते पर्याय जेटलो ज आत्मा समकिती मानतो नथी, ते क्रोधादिने पोताना स्वरूपथी
बाह्य जाणे छे, ने ज्ञानआनंदमय स्वभावने ज ते पोताना अंर्तस्वरूपे ग्रहण करे छे. श्रद्धाज्ञानमां जे
चिदानंदस्वभावने ग्रहण कर्यो तेने धर्मी कदी छोडता नथी, अने क्रोधादिने पोताना स्वरूपमां एकमेक मानीने कदी
ग्रहण करता नथी, तेने पोताना स्वरूपथी जुदा ज जाणे छे. आ रीते उपयोगस्वरूप आत्माने क्रोधादिथी जुदो
अनुभववो ते अंतरात्मा थवानो उपाय छे.