क्रोधादिने आत्माना स्वरूपपणे ग्रहतो नथी, अने ‘हुं तो ज्ञायक छुं’–एम श्रद्धाज्ञानमां ग्रहण कर्युं छे तेने कदी छोडतो
नथी, पोताना आत्माने ज्ञायकस्वरूपे ज स्वीकारे छे.
जुदो जुदो जाणे छे. शुद्ध ज्ञायकस्वरूपमां रागादि परभावोने कदी एकपणे ते स्वीकारतो नथी. शरीरने ग्रहे के छोडे,
कर्मोने ग्रहे के छोडे, रागादिने ग्रहे के छोडे–एवो आत्मानो स्वभाव नथी, आत्मानो स्वभाव तो स्वसंवेदनथी ग्राह्य
एवो ज्ञानानंदरूप ज छे. शरीरादिने हुं छोडुं–एम माननारे ते शरीरादिने पोतामां ग्रहेला मान्या छे,–ते विभ्रम छे. ए
ज प्रमाणे बहारना आश्रये–इन्द्रियो वगेरेथी ज्ञाननुं ग्रहण थाय एम जे माने छे तेणे पोताना आत्माने
ज्ञानानंदस्वरूप नथी जाण्यो, ज्ञानने पोताथी जुदुं मान्युं छे, एटले तेने छोडी दीधुं छे,–ते बहिरात्मा छे. धर्मी तो जाणे
छे के में शरीरादिने मारामां कदी ग्रह्या ज नथी के तेने हुं छोडुं; तेमज मारा ज्ञानादिस्वरूपने में कदी छोडयुं ज नथी के
तेने बहारथी ग्रहण करुं. हुं तो सदाय शरीरादिथी जुदो ज रह्यो छुं ने मारा ज्ञानानंदस्वरूपमां सदा एकमेकरूपे ज रह्यो
छुं. हुं सर्वथा सर्वनो जाणनार ज छुं.–आवो आत्मा स्वसंवेदनगम्य ज छे. जे स्वसंवेदनथी पोताना आवा आत्माने
जाणे छे ते अंतरात्मा छे.
आत्मा मानीने व्यर्थ चेष्टाओ करी.
छो?’ पण ठूंठुं तो कांई बोले नहि, एटले खीजाईने तेने बाथ भरवा जाय, त्यां खबर पडे के अरे! आ तो झाडनुं
ठूंठुं! में तेने माणस मानीने अत्यार सुधी व्यर्थ चेष्टाओ करी. तेम अज्ञानी जीव आ देहने ज आत्मा मानी रह्यो छे,
देह तो झाडना ठूंठा जेवो जड छे छतां तेने ज जीव मानीने ‘हुं बोलुं, हुं खाउं’ एम अज्ञानी व्यर्थ चेष्टाओ करे छे.
धर्मी जाणे छे के अरे, में पण पहेलां अज्ञानदशामां शरीरने आत्मा मानीने उन्मत्तवत् व्यर्थ चेष्टाओ करी; हवे भान
थयुं के अहो, हुं तो ज्ञानानंदस्वरूप ज छुं, आ देह तो जड अचेतन छे; देहथी हुं अत्यंत जुदो ज छुं, पूर्वे पण जुदो ज
हतो पण भ्रमथी तेने मारो मानीने में व्यर्थ चेष्टाओ करी हती.
जतां रामचंद्रजी तेना मृतक शरीरने लईने फरे छे त्यारे कहे छे के अरे भाई! हवे तो तुं बोल, मारा उपर तें आवी
रीस कदी करी नथी; सवार पडे त्यां कहे के भाई लक्ष्मण! हवे तो तुं ऊठ सवार थई गई. तुं क्यां सुधी सूई रहीश?
जिनेन्द्र भगवाननी पूजानो अवसर चाल्यो जाय छे. वळी तेने नवरावे, तेना मोढामां कोळीओ मूकीने तेने खवरावे–
एम अनेक प्रकारनी चेष्टाओ मडदा साथे करे छे. (–जो के आ प्रसंगे पण रामचंद्रजी तो आत्मज्ञानी हता, तेमने मात्र
अस्थिरतानो मोह हतो, आत्माने देहादिथी भिन्न ज जाणता हता एटले अज्ञान न हतुं; पण अहीं तो मरेलांने जीवतुं
मानीने व्यर्थ चेष्टाओ करी ते बतावता माटे द्रष्टांत लीधुं छे.) तेम आ शरीर तो सदाय जड मृतककलेवर छे पण
अज्ञानी