अंक आठमो रामजी माणेकचंद दोशी २४८४
करे? अने जो पोतामां ज साधन थवानी ताकात छे तो बीजा साधननी ओशीयाळ क्यां रहे छे? पण जीवोने
पराधीन द्रष्टि छूटती नथी एटले कंईक निमित्त ने कंईक राग मने धर्मनुं साधन थशे–एम माने छे, पण
अंर्तस्वभाव तरफ वळीने पोताना आत्माने ज साधन बनावतो नथी. भगवाननी वाणी एम बतावे छे के
अहो जीवो! परथी परम वैराग्य करीने चैतन्यस्वरूप तरफ वळो. परथी–रागथी कंई पण लाभ थाय एम जे
माने तेने परमवैराग्य होतो नथी. अहो! जिनवाणीमाता तो चैतन्यना निर्विकल्प रसनुं पान करावनारी छे;
निर्विकल्प अमृतनुं पान पर तरफना वलणथी नथी थतुं, स्व तरफना वलणथी ज थाय छे; एटले स्वभाव तरफ
वळवुं ते ज जिनवाणीनो उपदेश छे.
अने ए रीते स्वरूप–सन्मुख थतां ज सम्यजीवोने निर्विकल्प अमृतरसनुं पान थाय छे, तेथी जिनवाणीए ज अमृतनुं
पान कराव्युं–एम कहेवाय छे. श्रीमद् राजचंद्र पण कहे छे के–
विना रहेतुं नथी. वीतरागनी वाणी वीतरागता करावनारी छे, क्यांय पण रागने पोषे ते वीतरागनी वाणी नहि.
मुक्तपुरुषोनी वाणी तो मुक्ति तरफ ज लई जनारी छे, वीतरागी मोक्षमार्गनो ज आदेश देनारी छे. जे मोक्षार्थी–
पुरुषार्थी छे ते तो आवी वीतरागवाणी काने पडतां ज वीतरागी पुरुषार्थथी ऊछळी जाय छे के अहा, आ वाणी! आवी
मनोहर अपूर्व वाणी! आवो अचिंत्य स्वभाव दर्शावनारी वाणी! जे जीवने अंतरमां वीतरागतानो आवो पुरुषार्थ
नथी, ने कायरपणे रागने साधन माने छे, ते कायरने वीतरागनी वाणी प्रतिकूळ छे, जेम साकर छे तो मीठीमधुरी, पण
गधेडाने प्रतिकूळ पडे छे, तेम वीतरागनी वाणी तो मीठी मधुरी, परमशांतरसनी दातार छे पण विपरीतद्रष्टिवाळा
कायरने ते प्रतिकूळ पडे छे. केमके तेने रागनी रुचि छे तेथी वीतरागी तात्पर्यवाळी वाणी तेने क्यांथी रुचे? वीतराग
भगवाननी वाणी तो जीवने अंतर्मुख लई जईने चैतन्यना परम शांत अमृतरसनुं पान करावे छे, ने पुरुषार्थी भव्य
जीव ज तेने यथार्थपणे झीली शके छे.