ः ४ः आत्मधर्मः १७६
संसार परिभ्रमणनुं कारण अज्ञान
अने
ते अज्ञानना नाशनो उपाय
वांकानेर शहेरमां चैत्र सुद १२ना रोज पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी
देहमां रहेल आत्मा, अनादिअनंत सत्, चैतन्यतत्त्व छे; तेनो अंर्तस्वभाव सर्वज्ञपरमात्मा जेवो परिपूर्ण छे;
जेमने सर्वज्ञता प्रगटी गई छे एवा परमात्मानी वाणी ते शास्त्र छे. तेमां चैतन्यनुं जे स्वरूप कह्युं छे तेनी समजण
वगर अज्ञानभावथी जीव संसारमां परिभ्रमण करी रह्यो छे; अज्ञानथी चोरासीना अवतारमां परिभ्रमण करतो जीव
जे अनंत दुःख पामी रह्यो छे ते अज्ञान आत्मस्वरूपनी समजणथी ज टळे छे. ‘आत्मसिद्धि’ नी पहेली ज गाथामां
श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के–
जे स्वरूप समज्या विना पाम्यो दुःख अनंत;
समजाव्युं ते पद नमुं श्री सद्गुरु भगवंत.
अहीं पण समयसारनी ९७ मी गाथामां भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव–जेओ वनमां वसनारा दिगंबर संत हता
तेओ–अज्ञानना नाशनी रीत बतावे छे. प्रथम तो चैतन्यथी विरूद्ध भाव ते विकार छे, तेमां एकमेकबुद्धिथी जे
कर्ताकर्मपणुं माने छे ते अज्ञान छे, ने ते परिभ्रमणनुं कारण छे; विकारथी भिन्न चैतन्यनुं भान थतां, विकार साथेनी
कर्ताकर्मनी बुद्धिनो नाश थाय छे;–आवुं सम्यक्भान ते ज अज्ञानना नाशनो उपाय छे.
आत्मा पोतामां अने परमां एकपणानी जे मिथ्याबुद्धि करे छे ते अज्ञान छे अने ते ज विकारना कर्तापणानुं
मूळ छे;–आम जे जीव समजे छे तेने समस्त परभावो साथेनी एकताबुद्धि छूटी जाय छे.–आ ज अज्ञानना नाशनी
रीत छे, ने आ ज भवभ्रमणना दुःखथी छूटवानो उपाय छे.
भाई, आवो मनुष्य अवतार पामीने आ ज करवा जेवुं छे. जो आ मनुष्य अवतार पामीने पण
चैतन्यतत्त्वनी समजण न करी तो बधुं थोथां छे; कदाच पुण्य बांधे तो पण तेथी चैतन्यने शांतिनो कांई लाभ नथी;
अज्ञानभावे कदाच पुण्य बांधे तोपण तेथी धर्ममां कांई आगळ वधातुं नथी. पुण्यमां अने तेना फळमां जेने आत्मबुद्धि
छे ते जीव विकार वगरना चैतन्यस्वभावनो ‘आत्मभाव’ प्रगट करतो नथी, पण विकारभाव ज प्रगट करे छे;–
आवी विकारनी कर्तृत्वबुद्धि ते अज्ञान छे–एम जे जाणे छे ते जीव तेवी कर्तृत्वबुद्धिने छोडी दे छे–एटले के अज्ञाननो
तेने नाश थई जाय छे.–आ ज अज्ञानना नाशनी रीत छे.
आत्माना स्वभावने भूलीने जे विकारनो कर्ता थाय छे ने तेना फळमां (–स्वर्गादिमां) आश्चर्य पामे छे तेने
आचार्यदेव कहे छे केः अरे मूरख! एवा भावो तो