Atmadharma magazine - Ank 176
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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जेठः २४८४ः पः
अनंतकाळथी तें कर्या अने तेना फळरूप संयोग पण अनंतवार तने मळ्‌या, पण भवभ्रमणथी तारा नीवेडा न आव्या.
बापु! भवभ्रमणथी तारा नीवेडा केम आवे तेनी आ वात छे. तारी चैतन्यजात विकारथी जुदी छे, ते परनुं करे–ए
भ्रमणा छे, ते भ्रमणा छोड. परनुं ने विकारनुं कर्तृत्व मारामां नथी, हुं तो चैतन्यभाव छुं–आम जे जाणे छे तेने, विकार
साथे के पर साथे कर्तृत्वबुद्धिरूप अज्ञान नष्ट थई जाय छे. “आवी मान्यता ते अज्ञान छे” एम अज्ञानने जे खरेखर
ओळखे छे तेने ते अज्ञान रहेतुं नथी.
अरे! हुं चैतन्य, ने विकार मारुं कर्म केम होय? हुं पवित्र ज्ञाता, ने विकार मलिन–ते मारुं कार्य केम होय?
क्षणिक दोषथी पार मारुं कायमी चैतन्यतत्त्व निर्दोष छे–एम समजे–अंतर्मुख थईने जाणे–तेने अज्ञान केम रहे? तेने
विकारनी कर्ताबुद्धि केम रहे?–न ज रहे. तेने पोतानो आत्मा ज्ञायकपणे भासे छे, ने विकारनो अकर्ता प्रतिभासे छे.–
आ अज्ञानना नाशनी रीत छे, एटले आ ज मोक्षनो पंथ छे.
भाई, चैतन्यनो स्वाद तो शांत–अनाकुळ मीठो अमृत जेवो छे, ने रागादिनो स्वाद तो विकारी–
आकुळतामय तूरो छे; माटे ते विकारना कसायेला स्वाद साथे तारा चैतन्यस्वादनी एकता केम होय? तुं बंनेना
स्वादने अज्ञानपणे एकमेक मानी रह्यो छे ते अज्ञान छे. वीतरागनां वचनो तो विकारथी भिन्न चैतन्यनो
परमशांतरस बतावे छे.
वचनामृत वीतरागनां, परमशांतरस मूळ;
औषध जे भवरोगनां, कायरने प्रतिकूळ.
(श्रीमद् राजचंद्र)
अहा, वीतरागनां वचनो तेना चैतन्यने विकारथी जुदो पाडीने परमशांतरसनो अनुभव करावे छे; अने
ए ज भवरोग मटाडवानुं औषध छे;–पण पुरुषार्थहीन कायर जीवोने ते वात बेसती नथी; चैतन्यस्वभावनी
वात सांभळतां तेना अंतरमां चैतन्यवीर्यनो उल्लास आवतो नथी, ने बहारनो वातनो उल्लास आवे छे. अहा,
भगवाननी वाणीमां तो विकारथी भिन्न चैतन्यना अपूर्व पुरुषार्थनी वात छे, ते वात जेना काळजे बेठी तेने
चैतन्यना परमशांतरसनो स्वाद आव्या विना रहे नहि. चैतन्य अने विकारना स्वादना भेदज्ञान वगर कदी
शांतरसनो स्वाद आवे नहि ने भवथी नीवेडो थाय नहि. जेम भूंड भूंडडीमां ने विष्टाना स्वादमां आनंद माने
छे, तेम भूंड जेवो अज्ञानी प्राणी रागादि विकारना स्वादमां आनंद माने छे, अरे! पोताना चैतन्यना स्वादनी
तेने खबर पण नथी. अज्ञानी पण खरेखर कांई परवस्तुनो स्वाद नथी अनुभवतो, पण अज्ञानथी पोताना
आनंदस्वादने भूलीने फक्त विकारना स्वादने अनुभवे छे. सम्यग्ज्ञान थये आत्माना अपूर्व आनंदनो स्वाद
आवे छे. अनादिथी जेवो विकारनो स्वाद ल्ये छे तेवो ज स्वाद अनुभव्या करे ने धर्म थई जाय एम नथी. धर्म
तो अपूर्व चीज छे, ज्यां सम्यग्ज्ञान थयुं ने धर्मनी शरूआत थई त्यां धर्मीने चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदनो
सिद्ध भगवान जेवो स्वाद आत्मामां आवी जाय छे. आवा ज्ञान अने आनंदना स्वाद वगर कदी भवभ्रमणथी
छूटकारो थाय नहि; माटे आवुं सम्यग्ज्ञान करवा जेवुं छे. चैतन्यना स्वादने विकारथी भिन्न जाणीने,
भेदज्ञानवडे आत्माना आनंदनो स्वाद लेवो ते भवभ्रमणथी मुक्त थवानो उपाय छे.