Atmadharma magazine - Ank 176
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः ६ः आत्मधर्मः १७६
अनेकान्तमूर्ति भगवान आत्मानी
(४४)
संप्रदान शक्ति
समकिती धर्मात्माने रत्नत्रयना साधक संतमुनिवरो प्रत्ये
एवो भक्तिभाव होय छे के तेमने जोतां ज तेना रोमरोम
भक्तिथी उल्लसी जाय छे...अहो! आ मोक्षना साक्षात् साधक संत
भगवानने माटे हुं शुं–शुं करुं? ? कई कई रीते एमनी सेवा
करुं!! कई रीते एमने अर्पणता करी दउं!!–आम धर्मीनुं हृदय
भक्तिथी ऊछळी जाय छे. अने ज्यां एवा साधक मुनि पोताना
आंगणे आहार माटे पधारे ने आहारदाननो प्रसंग बने त्यां तो
जाणे साक्षात् भगवान ज आंगणे पधार्या..साक्षात् मोक्षमार्ग ज
आंगणे आव्यो.–एम अपार भक्तिथी मुनिने आहारदान
आपे.–पण ते वखते य, आहार लेनारा साधक मुनिने तथा
आहार देनारा समकिती धर्मात्माने अंतरमां सम्यक्भान वर्ते छे के
अमारो ज्ञायक आत्मा आ आहारनो लेनार के देनार नथी, तेमज
निर्दोष आहार लेवानी के देवानी शुभवृत्ति थाय तेनो पण देनार
के पात्र अमारो ज्ञायक आत्मा नथी. अमारो ज्ञायक आत्मा तो
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप निर्मळ भावोनो ज देनार छे ने
तेना ज अमे पात्र छीए.