द्वितीय श्रावणः २४८४ः १पः
भेदज्ञान–प्रश्नोत्तर
(समयसार सर्वविशुद्धज्ञान–अधिकार
उपरनां प्रवचनोमांथी)
(गतांक (अधिक श्रावण) थी चालु)
प्र. (१६प)ः– जडनो भोक्ता कोण छे?
उ.ः–
जडनो भोक्ता जड छे, ज्ञानी के अज्ञानी कोई जडनो भोक्ता नथी, केमके आत्मामां तेनो अभाव छे.
प्र. (१६६)ः– अज्ञानी शेनो भोक्ता छे?
उ.ः–
ज्ञानस्वभावने नहि जाणतो अज्ञानी प्रकृतिना स्वभावने एटले के हर्ष–शोक विगेरेने ज भोगवे छे.
प्र. (१६७)ः– ज्ञानी शेनो भोक्ता छे?
उ.ः–
ज्ञानी पोताना ज्ञानस्वभावमां एकाग्र थईने अतीन्द्रिय–आनंदनो ज भोक्ता छे.
प्र. (१६८)ः– द्रव्यश्रुतनुं ज्ञान थवा छतां पण अभव्य. अज्ञानी जीव प्रकृतिना स्वभावने केम छोडतो नथी?
उ.ः–
भावश्रुतज्ञानस्वरूप शुद्धात्मज्ञाननो तेने अभाव छे तेथी ते प्रकृतिना स्वभावने (हर्षशोकना
भोगवटाने) छोडतो नथी.
प्र. (१६९)ः– द्रव्यश्रुत केवां छे?
उ.ः– प्रकृतिना स्वभावने छोडाववाने समर्थ छे एटले निमित्त तरीके ते द्रव्यश्रुत (तेमज तेना उपदेशक
ज्ञानी) एम बतावे छे के तुं ज्ञायकस्वभाव तरफ वळ, ने प्रकृतिना स्वभावने छोड; ते ज्ञायकस्वभावने
पकडवानुं कहे छे ने प्रकृतिना स्वभावने छोडवानुं कहे छे. राग–द्वेष, हर्ष–शोक ते प्रकृतिनो स्वभाव छे,
तेनाथी आत्माने लाभ थवानुं कहे तो ते द्रव्यश्रुत नथी पण कुश्रुत छे. द्रव्यश्रुत तो ज्ञायक तरफ वळीने
मिथ्यात्वनो नाश थवानुं बतावे छे; अने आवा द्रव्यश्रुत ज मिथ्यात्वादि छोडाववाने समर्थ निमित्त
छे,–कोने? के भावश्रुतज्ञानस्वरूप शुद्धआत्मज्ञान प्रगट करे तेने. रागथी जे धर्म मनावे छे ते कुश्रुत छे,
ते तो मिथ्यात्वादि छोडाववाने निमित्त पण नथी.
प्र. (१७०)ः– पात्र श्रोता केवो होय?
उ.ः–
श्रवण करीने तेमांथी पोताना आत्मानुं हित साधवा मांगे छे, पोते पोताना आत्मानुं हित करवा माटे
जिज्ञासाथी सांभळे छे, ते पात्र श्रोता छे. पण श्रवण करीने पछी बीजाने संभळाववानुं ने मान–
मोटाई लेवानुं जेनुं लक्ष छे–तेवो जीव तो श्रवणनी लायकातवाळो पण नथी.
प्र. (१७१)ः– द्रव्यश्रुतना श्रवणनुं खरुं तात्पर्य शुं छे?
उ.ः–
अंतर्मुख थईने भावश्रुतज्ञानमां शुद्ध आत्माने पकडवो ते ज द्रव्यश्रुतनुं खरुं तात्पर्य छे. जे जीव आवुं
भावश्रुतज्ञान–शुद्धआत्मानुं ज्ञान–प्रगट करे छे तेने तो द्रव्यश्रुत मिथ्यात्वादि छोडाववानुं समर्थ
निमित्त थयुं. अने अज्ञानी एवुं भावश्रुतज्ञान करतो नथी तेथी तेने ते द्रव्यश्रुतनुं ज्ञान मिथ्यात्वादि
छोडाववानुं निमित्त पण नथी थतुं. द्रव्यश्रुत तो मिथ्यात्वादि छोडाववाने समर्थ निमित्त छे,–पण
अज्ञानी तेने निमित्त बनावतो नथी. उपादान विना निमित्त कोनुं?
प्र. (१७२)ः– जैन शासन कोणे जाण्युं?