पण उपाडया नथी; चिदानंदस्वभावनुं स्वामीपणुं छोडीने एक सेकंड पण रागना के परना स्वामी ते थया ज नथी.
आ (पोताना) शरीरना पण स्वामी पोताने नथी मानता; खभे मडदुं पडयुं छे ते वखते पण आत्मामां तो
सम्यग्दर्शनादि निर्मळभावोने ज ऊपाडया छे-तेना ज स्वामीपणे वर्ते छे.
विरुद्ध छे. जे करे छे ते तो कर्ता ज छे; रागादिनो कर्ता पण थाय ने ज्ञाता पण रहे-एम बनतुं नथी. अहीं
तो एवी अंर्तद्रष्टिनी अपूर्व वात छे के मारे मारा ज्ञायकस्वभाव साथे ज स्व-स्वामित्व संबंध छे पर
साथे मारे संबंध छे ज नहि-एम जाणीने ज्ञायकस्वभावना आश्रये परिणमनार जीव सम्यग्दर्शनादि निर्मळ
भावो साथे ज एकपणे परिणमे छे, ने रागादि साथे एकपणे कर्ता थईने ए परिणमतो ज नथी माटे ते
अकर्ता छे. ने आत्माना आवा स्वभावने जे ओळखे ते धर्मात्माने देव-गुरु-शास्त्रनो तेमज पोताना गुण-
दोष वगेरेनो बराबर विवेक थई जाय; तेने क्यांय स्वच्छंद के मुंझवण न थाय. धर्मात्मानी दशा ज कोई
ओर थई जाय छे! बहारथी जोनारा जीवो एने ओळखी शकता नथी.
जानकीने देखी? देखी होय तो मने कहे. त्यारे पोताना शब्दनो पडघो पडतां जाणे के पर्वते कांईक जवाब
दीधो-एम लागे छे. आवी दशा वखते रामचंद्रजी ज्ञानी-विवेकी-धर्मात्मा छे, अंर्तद्रष्टिमां सीतानुं के सीता
प्रत्येना रागनुं स्वामीपणुं मानता नथी, पण ज्ञानना ज स्वामीपणे परिणमे छे. मारा आत्मानी संबंधशक्ति
एवी छे के निर्मळभाव ज मारुं स्व छे, ने तेनो ज हुं स्वामी छुं; पण सीता मारुं स्व ने हुं तेनो स्वामी,
अथवा राग के शोकपरिणाम ते मारुं स्व ने तेनो स्वामी-एवो संबंध मारा स्वभावमां नथी, एम ते जाणे
छे. अज्ञानीने स्त्रीआदिनो वियोग थतां कदाचित ते खेद न करे ने शुभ रागथी सहन करी ल्ये, पण तेना
अभिप्रायमां एम छे के ‘आ राग मारुं स्व ने हुं तेनो स्वामी,’ अथवा ‘स्त्री मारी हती ने गई छतां में
सहन कर्युं.’-एटले तेनो अभिप्राय ज मिथ्या छे, तेना अभिप्रायमां अनंता रागनुं ने अनंती स्त्री वगेरेनुं
स्वामीत्व पडयुं छे. ज्ञानीने शोक परिणाम थाय ते वखते पण ‘हुं ज्ञायक ज छुं’ एवी द्रष्टि छूटती नथी
एटले आखा जगतनुं ने विकारनुं स्वामीपणुं तेने छूटी गयुं छे. स्वभावना आश्रये जे निर्मळपर्याय प्रगटी
ते ‘स्व’ अने आत्मा पोते तेनो स्वामी-आ रीते छेल्ली संबंधशक्तिमां द्रव्यपर्यायनी एक्ता बतावीने
आचार्यदेवे ४७ शक्तिओ पूरी करी छे. ‘आ निर्मळपर्याय मारुं स्व, ने हुं आनो स्वामी’ एम स्व-
स्वामीरूप बे भेदना विकल्पनो आ विषय नथी. अहीं ‘स्व’ ने ‘स्वामी’ एवा बे भेद बताववानो आशय
नथी, पण पोताना द्रव्य-पर्यायनी एक्तारूप परिणमन बताववुं छे. पोते पोताना स्वभाव साथे ज संबंध
राखीने स्वभाव साथे एक्तारूपे परिणमे एवो आत्मानो स्वभाव छे, ने तेमां ज आत्मानी शोभा छे.
आत्मा पोते पोताना स्वभावमां एक्ता करीने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपे परिणमे तेमां आत्मानी शोभा
छे; परंतु परना संबंधथी आत्माने ओळखाववो तेमां आत्मानी शोभा नथी, माटे हे जीव! परनो संबंध
तोडीने तारा ज्ञायकस्वभावमां ज एकत्व कर. ज्ञायकस्वभावमां एकता करीने जे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र
प्रगटयां ते तारा स्व-भाव छे, ने तुं ज तेनो स्वामी छो. आ सिवाय बीजा कोई साथे तारे स्व-
स्वामीसंबंध नथी.