द्वितीय श्रावणः २४८४ ः पः
(अषाढ सुद बीजना प्रवचनमांथी)
द्रव्य सत् छे, ते पोताना गुण-पर्यायोथी अभेद छे, एटले गुणो साथे नित्य
टकीने नवी नवी पर्यायरूपे पोते स्वयं परिणमे छे. आवा द्रव्यनुं स्वरूप-चतुष्टयथी
(पोताना द्रव्यथी, क्षेत्रथी, काळथी ने भावथी) सत्पणुं छे ने पर चतुष्टयथी
असत्पणुं छे.-सर्वज्ञ भगवाने जोयेलो आवो वस्तुस्वभाव छे.
सर्वज्ञ भगवाने राग अने विकल्पथी पार थईने अतीन्द्रिय ज्ञानवडे जगतना
पदार्थोनुं आवुं स्वरूप जाण्युं, ने पछी राग अने विकल्प वगर वाणीथी वीतरागपणे
ते कहेवायुं; ते तत्त्वोने राग अने विकल्पथी पार एवा भावश्रुतज्ञानवडे जाणतां
सम्यग्ज्ञाननी प्रसिद्धि थाय छे. आ रीते सम्यग्ज्ञाननी प्रसिद्धि कराववा अर्थे आ
शास्त्रनो उपदेश छे.
जे ‘सत्’ छे ते ज परपणे ‘असत्’ छे, पण सत्नो सर्वथा नाश थईने ते
असत् थई जाय-एम बनतुं नथी. सत्नो सर्वथा विच्छेद थतो नथी, ने जे सर्वथा
असत् होय तेनी उत्पत्ति थती नथी.
‘जे छे, ते ज नथी’-कई रीते? के ‘स्यात्’; एटले के स्व-रूपे जे सत् छे ते ज
पररूपे सत् नथी; परंतु स्व-रूपे जे ‘सत्’ छे ते ज स्व-रूपे पण ‘असत्’ छे-एम
नथी. जो एम होय तो पदार्थनुं कांई स्वरूप ज नथी रहेतुं. अर्थात् ते सत् पण नथी
सिद्ध थतुं के असत् पण नथी सिद्ध थतुं. माटे ‘सत्पणुं, तो स्व-रूपे छे, ने
‘असत्पणुं’ पर-रूपे छे, -आवुं अनेकान्तरूप वस्तुस्वरूप छे.
आत्मा सत् छे,-कया रूपे? पोताना ज्ञान-आनंदरूपे; आत्मा असत् छे,-कया
रूपे? देहादि पर-रूपे; पोताना आवा ‘सत्’ स्वरूपने न जोतां, पररूपे-देहादिरूपे के
एकला रागादिरूपे ज स्व-सत्ता मानवी ते भ्रमणा छे, ते आत्मभ्रांति छे, ने ते ज
संसारनुं मूळ छे.
जे सत् छे ते त्रण काळ रहेनारुं छे, ने त्रणे काळे पोतानी पर्यायसहित छे; केम
के पर्याय वगरनुं सत् कोई काळे होतुं नथी...तो हवे त्रिकाळी सत्ने के तेनी कोई
पर्यायने