Atmadharma magazine - Ank 179
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः ८ः आत्मधर्मः १७९
‘जीवत्व’ थी शरू करीने संबंधशक्ति सुधी ४७ शक्तिओ आचार्यदेवे वर्णवी;– इत्यादि अनंतशक्तिओ
आत्मामां छे; ने अनंतशक्तिओ होवा छतां आत्मा ज्ञानमात्र ज छे, केमके ‘ज्ञानमात्र’ कहेतां पण, तेनाथी
कांई एकलो ज्ञानगुण ज लक्षित नथी थतो पण अनंतशक्तिस्वरूप आखो आत्मा लक्षित थाय छे, कोई शक्ति
जुदी नथी रहेती. माटे ज्ञानलक्षण पण आवा अनंतशक्तिसंपन्न अनेकान्तमूर्ति भगवान आत्माने ज प्रसिद्ध
करे छे.
अनंतशक्तिओमांथी ४७ शक्तिनुं वर्णन करीने आचार्यदेव २६४मा कळशमां कहे छे के आवी
अनंतशक्तिओथी युक्त आत्मा छे, छतां ते ज्ञानमात्रपणाने छोडतो नथी. अनेक निजशक्तिओथी सुनिर्भर
होवा छतां आत्मा ज्ञानमय छे; आत्मानो भाव ज्ञानमयपणुं छोडतो नथी. ‘ज्ञानमात्र’ कहेतां आत्माना बधा
धर्मो सहित संपूर्ण चैतन्यवस्तु प्रतीतमां आवी जाय छे. आ चैतन्यवस्तु द्रव्यपर्यायमय छे, अने क्रमरूप
प्रवर्तती पर्यायो तथा अक्रमरूप वर्तता गुणोना परिणमनथी ते अनेकधर्मस्वरूप छे. आवी चैतन्यवस्तुने
‘अनेकान्त’ प्रसिद्ध करे छे. अनेकान्त ते जिनेन्द्र भगवाननुं कोईथी न तोडी शकाय एवुं अलंघ्य शासन छे
बधी एकान्त मान्यताओने क्षणमात्रमां तोडी पाडे ने अनेकान्त स्वरूपे भगवान आत्माने प्रसिद्ध करे एवुं
अर्हंतदेवनुं अनेकान्त शासन जयवंत वर्ते छे.
अनंत शक्तिसंपन्न अने असंख्यप्रदेशी एवा आत्माने सर्वप्रकारे प्रत्यक्ष जाणीने सर्वज्ञ भगवान कहे छे के
अरे जीव! तारो आत्मा असंख्यप्रदेशी ने अनंतशक्तिनो पिंड छे, ते स्वभाव सन्मुख जो..पोताथी ज तारी परिपूर्णता
छे. तारा स्वरूपमां जरा पण कमीना नथी के तारे बीजा पासेथी लेवा जवुं पडे! तारामां शी खोट छे के तुं बीजामां
गोतवा जाय छे? आत्मानी स्वभावशक्तिमां जे पूर्ण ज्ञान–आनंद–प्रभुतानुं सामर्थ्य हतुं ते ज अमे आत्मामांथी
प्रगट कर्युं छे, बहारथी नथी आव्युं...तारा आत्मामां पण तेवुं सामर्थ्य छे तेने तुं जाण..ने तेनो विश्वास करीने तेनी
सन्मुख था; एटले तारी आत्मशक्तिमांथी परिपूर्ण ज्ञान–आनंद–प्रभुता खीली जशे.
तारो आत्मा निजशक्तिथी सारी रीते भरेलो छे, विकार के कर्मोथी तारो आत्मा भरेलो नथी, तेनाथी तो जुदो
छे; ने निज शक्तिओथी एवो भरेलो छे के तेमांथी कदी एक पण शक्ति ओछी थती नथी. आत्मा विकारथी ने परथी
छूटो रहे छे पण पोताना ज्ञानमात्र भावने ते कदी छोडतो नथी. जेम साकर मेलने छोडे छे पण मीठाशने नथी छोडती,
जेम अग्नि धूमाडाने छोडे छे पण उष्णताने नथी छोडतो, तेम चैतन्यमूर्ति आत्मा रागादि विकारभावोने छोडे छे पण
पोताना ज्ञानभावने कदी छोडतो नथी, माटे ज्ञानभाववडे तारा आत्माने लक्षमां लईने आत्मानी प्रसिद्धि कर..
आत्मानो अनुभव कर.
जेणे ज्ञानलक्षणने अंतर्मुख करीने लक्ष्यरूप आत्माने अनुभव्यो ते साधक धर्मात्मा ज्ञानभावपणे ज सदाय वर्ते
छे. ज्ञानभावने कदी छोडता नथी ने विकारमय कदी थता नथी...अने ज्ञानमयभावमां ‘परनुं करुं’ ए बुद्धिने तो
अवकाश ज कयां छे? ‘सीताने आम शोधुं तो मळशे..’ एवो विकल्प ज्ञानी धर्मात्माने (रामचंद्रजीने) आव्यो, छतां
ते वखतेय ज्ञानी विकल्पमय थईने नथी परिणम्या, ते वखतेय ज्ञानमयभावरूपे ज परिणम्या छे; विकल्पने तो
ज्ञानभावथी बहार ज राख्यो छे.
ज्ञानी जाणे छे के मारो आत्मा ज क्रमपर्यायरूप ने अक्रमगुणरूप स्वभाववाळो छे. अनंतगुणो एकसाथे
अक्रमपणे सहवर्ती छे...ने पर्यायो नियतक्रमरूप छे. मारा अक्रमवर्ती गुणोमां ने क्रमवर्ती पर्यायोमां हुं
ज्ञानमात्रभावपणे ज वर्तु छुं.–आवा निर्णयमां ज्ञातास्वभावनो अनंतपुरुषार्थ छे...विकार तरफनो पुरुषार्थनो वेग तूटी
गयो छे...अल्प राग रह्यो तेनी निरर्थकता जाणी छे...ज्ञानमात्रभावपणे ज परिणमतो परिणमतो कंकुवरणे पगले
केवळज्ञान लेवा माटे साधक चाल्यो जाय छे.
जुओ, आ आत्मशक्तिना साधक संतोनी दशा!
ज्ञानी तो पोतानी अनंतशक्तिनो बादशाह छे...जगतनी तेने दरकार नथी केमके जगत पासेथी कांई लेवुं नथी..
भगवानना दास...ने जगतथी उदास...आवा समकिती जीव सदाय सुखीया छे...आत्मिक आनंदने अनुभवे छे..
चैतन्यना आनंदसमुद्रमां डूबकी मारीने अल्पकाळमां ते केवळज्ञानरत्न प्राप्त करे छे.