कांई एकलो ज्ञानगुण ज लक्षित नथी थतो पण अनंतशक्तिस्वरूप आखो आत्मा लक्षित थाय छे, कोई शक्ति
जुदी नथी रहेती. माटे ज्ञानलक्षण पण आवा अनंतशक्तिसंपन्न अनेकान्तमूर्ति भगवान आत्माने ज प्रसिद्ध
करे छे.
होवा छतां आत्मा ज्ञानमय छे; आत्मानो भाव ज्ञानमयपणुं छोडतो नथी. ‘ज्ञानमात्र’ कहेतां आत्माना बधा
धर्मो सहित संपूर्ण चैतन्यवस्तु प्रतीतमां आवी जाय छे. आ चैतन्यवस्तु द्रव्यपर्यायमय छे, अने क्रमरूप
प्रवर्तती पर्यायो तथा अक्रमरूप वर्तता गुणोना परिणमनथी ते अनेकधर्मस्वरूप छे. आवी चैतन्यवस्तुने
‘अनेकान्त’ प्रसिद्ध करे छे. अनेकान्त ते जिनेन्द्र भगवाननुं कोईथी न तोडी शकाय एवुं अलंघ्य शासन छे
बधी एकान्त मान्यताओने क्षणमात्रमां तोडी पाडे ने अनेकान्त स्वरूपे भगवान आत्माने प्रसिद्ध करे एवुं
अर्हंतदेवनुं अनेकान्त शासन जयवंत वर्ते छे.
छे. तारा स्वरूपमां जरा पण कमीना नथी के तारे बीजा पासेथी लेवा जवुं पडे! तारामां शी खोट छे के तुं बीजामां
गोतवा जाय छे? आत्मानी स्वभावशक्तिमां जे पूर्ण ज्ञान–आनंद–प्रभुतानुं सामर्थ्य हतुं ते ज अमे आत्मामांथी
प्रगट कर्युं छे, बहारथी नथी आव्युं...तारा आत्मामां पण तेवुं सामर्थ्य छे तेने तुं जाण..ने तेनो विश्वास करीने तेनी
सन्मुख था; एटले तारी आत्मशक्तिमांथी परिपूर्ण ज्ञान–आनंद–प्रभुता खीली जशे.
छूटो रहे छे पण पोताना ज्ञानमात्र भावने ते कदी छोडतो नथी. जेम साकर मेलने छोडे छे पण मीठाशने नथी छोडती,
जेम अग्नि धूमाडाने छोडे छे पण उष्णताने नथी छोडतो, तेम चैतन्यमूर्ति आत्मा रागादि विकारभावोने छोडे छे पण
पोताना ज्ञानभावने कदी छोडतो नथी, माटे ज्ञानभाववडे तारा आत्माने लक्षमां लईने आत्मानी प्रसिद्धि कर..
आत्मानो अनुभव कर.
अवकाश ज कयां छे? ‘सीताने आम शोधुं तो मळशे..’ एवो विकल्प ज्ञानी धर्मात्माने (रामचंद्रजीने) आव्यो, छतां
ते वखतेय ज्ञानी विकल्पमय थईने नथी परिणम्या, ते वखतेय ज्ञानमयभावरूपे ज परिणम्या छे; विकल्पने तो
ज्ञानभावथी बहार ज राख्यो छे.
ज्ञानमात्रभावपणे ज वर्तु छुं.–आवा निर्णयमां ज्ञातास्वभावनो अनंतपुरुषार्थ छे...विकार तरफनो पुरुषार्थनो वेग तूटी
गयो छे...अल्प राग रह्यो तेनी निरर्थकता जाणी छे...ज्ञानमात्रभावपणे ज परिणमतो परिणमतो कंकुवरणे पगले
केवळज्ञान लेवा माटे साधक चाल्यो जाय छे.
चैतन्यना आनंदसमुद्रमां डूबकी मारीने अल्पकाळमां ते केवळज्ञानरत्न प्राप्त करे छे.