ः १६ः आत्मधर्मः १७९
– परम शांति दातारी –
अध्यात्म भावना
भगवानश्री पूज्य पादस्वामी रचित ‘समाधिशतक’
उपर परम पूज्य सद्गुरुदेवश्री कानजीस्वामीना अध्यात्मभावना
–भरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार.
(वीर सं. २४८२ जेठ सुद १४ (२) समाधिशतक गा. २६)
२पमी गाथामां एम कह्युं के बोधस्वरूप आत्मानी भावनाथी रागादिनो क्षय थई जतां मने कोई शत्रु के मित्र
तरीके भासता नथी; हुं तो मारा ज्ञानानंदस्वरूपना शांतरसमां ज रहुं छुं.
त्यारे हवे पूछे छे के तमे भले बीजाने शत्रु के मित्र न मानो, पण बीजा जीवो तो तमने शत्रु के मित्र मानता
हशेने? तो तेना उत्तररूप गाथा कहे छे–
मामपश्यन्नयं लोको न मे शत्रुर्न च प्रियः।
मां प्रपश्यन्नयं लोको न मे शत्रुर्न च प्रियः।।२६।।
हुं तो बोधस्वरूप अतीन्द्रिय आत्मा छुं; जेओ अतीन्द्रिय आत्माने नथी जाणवा एवा अज्ञ जीवो तो मने
देखता ज नथी, तेओ मात्र आ शरीरने देखे छे पण मने नथी देखता, तेथी ते मारा शत्रु के मित्र नथी आ शरीरने
शत्रु के मित्र माने छे पण मने तो देखतो ज नथी तो देख्या वगर शत्रु के मित्र क्यांथी माने? जेने जेनो परिचय ज
नथी ते तेने शत्रु के मित्र क्यांथी माने? अज्ञ जनोने बोधस्वरूप एवा मारा आत्मानो परिचय ज नथी. तेमना
चर्मचक्षुथी तो हुं अगोचर छुं, तेओ बिचारा पोताना आत्माने पण नथी जाणता तो मारा आत्माने तो क्यांथी जाणे?
अने मने जाण्या वगर मारा संबंधमां शत्रु–मित्रपणानी कल्पना क्यांथी करी शके?
अने आत्माना स्वरूपने जाणनारा विज्ञ जनो तो कोईने शत्रु–मित्र मानता नथी, माटे मारा संबंधमां तेमने
पण शत्रु–मित्रपणानी कल्पना थती नथी.
परमां शत्रु–मित्रपणानी कल्पना अज्ञानीने थाय छे, पण ते तो मारा आत्माने देखतो नथी अने ज्ञानी मारा
आत्माने देखे छे पण तेमने कोई प्रत्ये शत्रु–मित्रपणानी कल्पना थती नथी, माटे मारे कोई शत्रु–मित्र नथी ने हुं
कोईनो शत्रु–मित्र नथी–एम धर्मी जाणे छे.
प्रश्नः– भरत अने बाहुबलि बंने ज्ञानी हता छतां बंने सामसामा लडया हता. छतां कोई कोईना शत्रु नथी?
उत्तरः– बंनेने अस्थिरतानो द्वेष हतो, पण सामा आत्माने पोतानो शत्रु मानीने ते द्वेष थयो न हतो. ते
वखते भान हतुं के हुं ज्ञानस्वरूप छुं ने सामो आत्मा पण ज्ञानस्वरूप ज छे, ते कांई मारो शत्रु के मित्र नथी, ने हुं
तेनो शत्रु के मित्र नथी. बंनेने अंतरमां बोधस्वरूप आत्मानुं भान हतुं एटले अभिप्राय अपेक्षाए कोईने शत्रु–मित्र
मानता न हता. अने आवा आत्माने जाणीने पछी तेनी भावनामां स्थिर थतां एवी समाधि थाय छे के कोई प्रत्ये
द्वेषनी के रागनी वृत्ति ज नथी ऊठती; माटे तेने कोई शत्रु के मित्र नथी.