Atmadharma magazine - Ank 179
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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भादरवोः २४८४ः १७ः
‘स्व’ ना ज्ञानपूर्वक परने पण पोताना जेवो ज स्वभावे जे जाणे छे तेने परप्रत्ये शत्रु–मित्रपणानी मान्यता
थती नथी. अने ‘स्व’ ना ज्ञानवगर परने जाणतो ज नथी, तो जाण्या वगर तेने शत्रु के मित्रनी कल्पना क्यांथी
थाय? अज्ञानी तो जड शरीरने ज देखे छे ने तेने ज शत्रु–मित्रपणे माने छे, पण शरीर तो हुं नथी माटे हुं कोईनो
शत्रु–मित्र नथी ने मारे कोई शत्रु–मित्र नथी. मारा ज्ञानस्वरूप आत्माने ज हुं अनुभवुं छुं.
जुओ, आ ज्ञानीनी वीतरागी भावना! पोते पोताना आत्माने बोधस्वरूप देखे छे ने जगतना बधाय
आत्माओ पण एवा बोधस्वरूप ज छे एम जाणे छे, तेथी पोताने कोई प्रत्ये शत्रु–मित्रपणानी बुद्धि रही नथी,
तेमज बीजा मने शत्रु–मित्र मानता हशे एवुं शल्य रह्युं नथी. ‘अज्ञ’ तो मने देखता नथी, ने ‘विज्ञ’ कोईने शत्रु–
मित्र मानता नथी केम के तेने आत्मस्वरूपनी भावनाथी रागद्वेष क्षय थई गया छे. आ रीते अज्ञ के विज्ञ कोईनी
साथे मारे शत्रु के मित्रपणुं नथी; हुं तो ज्ञानस्वरूप छुं. आ रीते बोधस्वरूप आत्मानी भावनाथी वीतरागी समाधि
थाय छे.
।। २६।।
ए रीते, “हुं शुद्ध बोधस्वरूप छुं, मारे कोईनी साथे शत्रु–मित्रपणुं नथी.”–एवा ज्ञानवडे बहिरात्मपणुं
छोडीने, अंतरात्मा थईने, संकल्प–विकल्प रहित परमात्माने भाववो एम हवे कहे छे–
त्यक्त्वैवं बहिरात्मानमन्तरात्मव्यवस्थितः।
भावयेत्परमात्मानं सर्वसंकल्पवर्जितम्।।२७।।
पूर्वोक्त रीते, “हुं बोधस्वरूप छुं”–एवा स्व–संवेदनद्वारा बहिरात्मपणुं छोडीने अंतरात्मा थवुं अने
अंतरात्मा थईने समस्त संकल्प–विकल्पोथी रहित परमात्माने भाववो. आवी परमात्मभावना ते परमात्मा थवानो
उपाय छे.
हजी तो जे परने शत्रु–मित्र माने छे तेने परमात्मतत्त्वनी भावना होती नथी, तेने तो रागद्वेषनी ज भावना
छे. हुं बधायथी जुदो बोधस्वरूप ज छुं–एम जाणीने बहिरात्मपणुं छोडवुं ने अंतरात्मा थवुं; ए रीते आत्मस्वरूपना
ज्ञाता अंतरात्मा थईने पोताना परमात्मतत्त्वने सर्वविकल्परहित थईने भाववुं. आवी भावनाथी आत्मानुं सहज
सुख अनुभवमां आवे छे, ने वीतरागी समाधि थाय छे. माटे जगतना द्वंद्व–फंदना विकल्पो छोडीने ज्ञानानंदस्वरूप
परमात्मानी ज भावना करवी.
।। २७।।
ज्ञानानंदस्वरूपने जाणीने तेनी ज भावना करवाथी शुं फळ थाय छे ते हवे कहे छे के–
सोऽहमित्यात्तसंस्कारस्तस्मिन् भावनया पुनः।
तत्रैव द्दढसंस्काराल्लभते ह्यात्मनि स्थितिम्।।२८।।
आ जे शुद्धज्ञानस्वरूप परमात्मा छे ते ज हुं छुं. एवा संस्कार पामीने, वारंवार तेमां भावना करीने, तेमां ज
द्रढ संस्कार थतां आत्मस्वरूपमां स्थिति थाय छे. आ रीते स्वरूपमां स्थिरता थतां आत्मा परम आनंदना अनुभवमां
मग्न थाय छे.
जुओ, आ परमात्मा थवा माटेनी भावना; अनादिथी आत्माना वास्तविक स्वरूपने भूलीने, देह ते हुं, अथवा
राग ते हुं–एवी विपरीत भावना द्रढपणे घूंटी छे, पण देहथी ने रागथी पार, जेवा परमात्मा छे तेवो ज हुं छुं–एवी
भावना पूर्वे कदी जीवे भावी नथी. ‘ज्ञानआनंदनो पिंड परमात्मा हुं छुं’–
अप्पा सो परमप्पा–एवी द्रढभावनावडे तेमां
एकत्वबुद्धि थतां अपूर्व आनंदनुं स्वसंवेदन थाय छे. ‘हुं मनुष्य छुं’ इत्यादि भावना जेम द्रढपणे घूंटाई गई छे तेम
‘हुं मनुष्य नहि परंतु हुं तो देहथी भिन्न ज्ञानशरीरी परमात्मा छुं’–एवी भावना द्रढपणे घूंटावी जोईए.–एवी
द्रढभावना थवी जोईए के तेमां ज अभेदता भासे, तेमां ज पोतापणुं भासे, ने देहादिमां क्यांय पोतापणुं न भासे;
स्वप्नमां पण एम आवे के हुं चिदानंद परमात्मा छुं...अनंत सिद्ध भगवंतोनी साथे हुं वसुं छुं. ‘शरीर ते हुं छुं’ एम
स्वप्ने पण न भासे. आ रीते आत्मभावनाना द्रढ संस्कारवडे तेमां ज लीनता थतां आत्मा पोते परमात्मा थई जाय
छे.–परमात्म स्वरूपनी भावनानुं आ फळ छे; केम के–‘जेवी भावना तेवुं भवन.’
जे पोताना आत्माने शुद्ध स्वरूपे भावे छे–अनुभवे छे तेने शुद्धतारूप भवन–परिणमन थाय छे; अने जे
पोताना आत्माने रागादि अशुद्धस्वरूपे ज अनुभवे छे तेने अशुद्धतारूप परिणमन थाय छे.
‘जे शुद्ध जाणे आत्मने ते शुद्ध आत्म ज मेळवे;
अणशुद्ध जाणे आत्मने, अणशुद्ध आत्म ज ते लहे.’