Atmadharma magazine - Ank 179
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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भादरवोः २४८४ः १९ः
श्रीमद् राजचंद्रजी १६ वर्षनी नानी वये कहे छे के–
हुं कोण छुं? क्यांथी थयो? शुं स्वरूप छे मारुं खरुं?
कोना संबंधे वळगणा छे? राखुं के ए परिहरुं?
एना विचार विवेकपूर्वक शांत भावे जो कर्यां,
तो सर्व आत्मिक ज्ञाननां सिद्धांत तत्त्वो अनुभव्यां.
अरे जीवो! विचार तो करो, के आ देहमां रहेलो आत्मा शुं चीज छे? एनुं वास्तविक खरेखरुं स्वरूप शुं छे?
अंतरमां आत्मा पोते हुं कोण छुं–के जेना भान वगर अत्यार सुधी मारे परिभ्रमण थयुं!
आत्माना भान वगर संसारमां रखडतो जीव नरक अने स्वर्गना पण अनंत अवतार करी चूकयो छे. आ
पृथ्वीनी नीचे नरकगतिनुं क्षेत्र छे. ते नरकगति युक्तिथी पण साबित थाय छे. जुओ, अहीं राजव्यवस्थाना न्यायमां,
कोई माणसे एक खून कर्युं होय ने तेनो ते गुन्हो साबित थाय तो तेने एक वार फांसी अपाय छे; हवे ते ज माणस
कदाचित एम कबूल करे के में एक नहि पण हजारो–लाखो खून कर्यां छे, तो अहीं तेने शुं शिक्षा थशे? तेने पण एक ज
वार फांसी मळशे. तो विचारो के एक खून करनारने एक वार फांसी ने लाखो खून करनारने पण एक वार फांसी! ए
शुं न्याय छे? नहि. “मने प्रतिकूळता करनारा हजारो लाखो जीवो होय तो ते बधाने पण हुं उडाडी दऊं, अने ते पण
थोडो काळ नहि परंतु हजारो वर्षनुं जीवन होय तो तेटलो काळ सुधी पण प्रतिकूळता करनारा बधा जीवोने ऊडाडी
दऊं.” एवा क्रूर परिणाम जेणे कर्या, ते भले कदाचित कोई जीवने मारी न शके पण तेना क्रूर परिणामनुं फळ तो ते
अवश्य भोगवे छे, अने ते फळ भोगववानुं स्थान नीचे नरकयोनिमां छे,–के ज्यां हजारो लाखो वार तेना शरीरनां
कटकेकटका थई जाय छे. आवा नरकना अवतार दरेक जीवे अज्ञानभावने लीधे अनंत वार कर्यां छे. अरे, चैतन्यतत्त्व
पोते कोण छे तेना भान वगर जीवनो अनादिनो काळ संसारपरिभ्रमणमां ज गयो छे. एक वार पण जो मोक्ष थयो
होय तो पछी संसारपरिभ्रमण रहे नहि.
आचार्यदेव कहे छे केः अरे मोहांध प्राणीओ! तमे रागने, देहने अने आत्माने एकमेकपणे मानीने
अनादिथी मोहमां सूता छो..हवे तो जागो..ने जागीने तमारा शुद्ध चैतन्य तत्त्वने रागथी भिन्न देखो.
चैतन्यपदना भान वगर परिभ्रमण टळे नहि. चैतन्यना भान वगर तीव्र हिंसादिथी नरकमां रखडे छे ने
हिंसादिने बदले दयादि कोमळ परिणामथी जीव स्वर्गमां–देवगतिमां–जन्मे छे. ते देवगति पण आत्मानुं खरुं पद
नथी. अरे जीव! तुं जागीने विवेक कर के आ देह अने विकार हुं नहि, हुं तो चैतन्य छुं; मारुं निजपद तो शुद्ध
चैतन्यस्वरूप छे. मारी शुद्ध चैतन्य सत्तामां रागनो प्रवेश नथी. परपदना भरोसे अत्यार सुधी हुं निजपदने
भूल्यो, पण हवे संतोए परम करुणा करीने मने मारुं निजपद ओळखाव्युं. जेम कोई राजा, पोतानुं राजापणुं
भूलीने ऊकरडा उपर रखडतो होय, ने कोई सज्जन पुरुष तेने तेनुं राजापणुं ओळखावीने, तथा तेनो
राजवैभव देखाडीने तेने तेना राजसिंहासने बेसाडे तो ते राजा केवो खुशी थाय! तेम आ चैतन्यराजा, पोतानुं
चैतन्यपद भूलीने रागद्वेषादि विकारीभावना ऊकरडामां निजपद मानीने रखडे छे, त्यां ज्ञानी सत्पुरुषो तेने तेनुं
चैतन्यपद ओळखावीने, तथा तेनो चैतन्यवैभव देखाडीने, तेने तेना शुद्ध चैतन्यपदमां स्थापे छे; त्यां आत्मार्थी
जीव पोताना शुद्ध चैतन्यपदने देखीने परम आनंदित थाय छे.
एक प्राणी एम कहे छे के मारे निर्दोष थवुं छे. तो तेमांथी एम सिद्ध थाय छे के –
वर्तमानमां ते निर्दोष नथी.
वर्तमानमां दोष छे पण ते कायमी नथी,
एटले के टळी शके छे.
दोष टळीने निर्दोषता क्यांथी आवशे? के दोष वखते पण स्वभावमां निर्दोषता भरी छे तेमांथी निर्दोषता
आवे छे. आवा स्वभावनी प्रतीत वगर कोई जीवने दोष टळीने निर्दोषता थई शके नहि. दोष ते कायमी स्वभाव
नथी, कायमी स्वभाव तो निर्दोष छे–