Atmadharma magazine - Ank 179
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः २०ः आत्मधर्मः १७९
एम जो विश्वास करे तो ते निर्दोष स्वभावनी सन्मुख थईने दोषने छेदी नांखे ने निर्दोषता प्रगट करे.
जेम उष्णता वखते पण पाणीनो स्वभाव ठंडो छे; ते ठंडो स्वभाव जो के आंखथी, नाकथी, कानथी, जीभथी के
हाथना स्पर्शथी देखी शकातो नथी, पण ते प्रकारना ज्ञानना विश्वासथी पाणीनो ठंडो स्वभाव नक्की करीने, तेने ठारे छे,
ने पछी तेनाथी तृषा छीपावे छेः तेम वर्तमान पर्यायमां विकाररूप उष्णता होवा छतां आत्मानो असली स्वभाव शांत
छे. ते शांतस्वभाव जो के आंखथी, नाकथी, कानथी, जीभथी के हाथना स्पर्शथी देखी शकातो नथी, पण ज्ञानने तेना
तरफ लई जईने (अंतर्मुख थईने) ते स्वभावनो निर्णय थाय छे, अने तेना स्वसंवेदनवडे शांतरसना पानथी
अनादिनी तृषा छीपी जाय छे ने भवभ्रमणना थाक उतरी जाय छे.
आचार्यदेव आ वात कोने समजावे छे? जडने नथी समजावता; आत्मामां आ समजवानी ताकात छे एम
जाणीने आत्माने आ वात समजावे छे. दरेक आत्मामां आ समजवानी ताकात छे, पण सत्समागमे तेनो अभ्यास
करवो जोईए. मनुष्यपणामां आ करवा जेवुं छे. श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के–
बहु पुण्य केरा पुंजथी शुभ देह मानवनो मळ्‌यो,
तोये अरे! भवचक्रनो आंटो नहि एके टळ्‌यो;
सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे लेश ए लक्षे लहो,
क्षण क्षण भयंकर भावमरणे कां अहो! राची रहो?
सोळ वरस एटले तो नानी उंमर कहेवाय, पण आत्मा पूर्वभवनो संस्कारी हतो, एटले नानी उंमरमां कहे छे
केः अरे जीवो! पूर्वना घणां पुण्यना प्रतापे आ मानव अवतार मळ्‌यो छे, तेमां पण जो आत्मभान करीने भवचक्रनो
अंत न आव्यो तो आ मोंघो मनुष्यभव पामीने तमे शुं कर्युं? कीडीना अवतारमां ने तमारा अवतारमां शो फेर
पडयो? चैतन्यने चूकीने बाह्य विषयोमां सुख मानवाथी अने सुखने माटे बहारमां झांवा नांखवाथी सुख मळतुं तो
नथी, परंतु उलटुं आत्मानुं वास्तविक सुख टळी जाय छे; आ वात तमे जराक लक्षमां तो ल्यो. बहारनी वात उपर लक्ष
आप्युं छे पण अंतरमां आत्मा पोते सुखथी भरेलो छे तेने जराक लक्षमां तो ल्यो. चैतन्यने चूकीने क्षणे क्षणे
भावमरणमां कां राची रहो? अज्ञानभावने लीधे आत्मा क्षणे क्षणे भावमरणथी मरी रह्यो छे, तेनी दया लावो!
आत्माने भवदुःखथी ऊगारवा माटे आत्मानी दया करो, एटले के मारो आत्मा आ भवभ्रमणथी केम छूटे तेनो उपाय
विचारो. आचार्य भगवान कहे छे के आ शुद्धचैतन्यपद ते ज तमारुं निजपद छे, तेने ओळखो; ते निजपदमां
स्थिरताथी तमारा भवभ्रमणनो नाश थई जशे.
संतोनी ऊर्मि
प्रश्नः– अनुभवमां झूलता संतोने केवी ऊर्मि ऊठी?
उत्तरः– जंगलमां, आत्माना आनंदना अनुभवमां झूलता संतोने एवी ऊर्मि आवी केः अहो! आत्मानो
आवो ज्ञानस्वभाव जगतना जीवो समजे तो तेमनुं अज्ञान टळे..आत्माना आवा आनंदने जगतना जीवो देखे तो
तेमनुं दुःख टळे..अहो, आवो आनंदस्वरूप भगवान आत्मा, परथी अत्यंत जुदो, तेने एक वार पण जो
परमार्थद्रष्टिथी ग्रहण करे तो ते जीवने अज्ञाननो एवो नाश थाय के ते ज्ञानघन आत्माने फरीने बंधन न थाय ने ते
मुक्ति पामे माटे, “हे भव्य जीवो! आत्माने परना कर्तृत्वथी रहित ज्ञायकस्वभावपणे ज विलसतो देखो”–एम परम
करुणाबुद्धिथी संतोए उपदेश कर्यो छे.