ने पछी तेनाथी तृषा छीपावे छेः तेम वर्तमान पर्यायमां विकाररूप उष्णता होवा छतां आत्मानो असली स्वभाव शांत
छे. ते शांतस्वभाव जो के आंखथी, नाकथी, कानथी, जीभथी के हाथना स्पर्शथी देखी शकातो नथी, पण ज्ञानने तेना
तरफ लई जईने (अंतर्मुख थईने) ते स्वभावनो निर्णय थाय छे, अने तेना स्वसंवेदनवडे शांतरसना पानथी
अनादिनी तृषा छीपी जाय छे ने भवभ्रमणना थाक उतरी जाय छे.
करवो जोईए. मनुष्यपणामां आ करवा जेवुं छे. श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के–
अंत न आव्यो तो आ मोंघो मनुष्यभव पामीने तमे शुं कर्युं? कीडीना अवतारमां ने तमारा अवतारमां शो फेर
पडयो? चैतन्यने चूकीने बाह्य विषयोमां सुख मानवाथी अने सुखने माटे बहारमां झांवा नांखवाथी सुख मळतुं तो
नथी, परंतु उलटुं आत्मानुं वास्तविक सुख टळी जाय छे; आ वात तमे जराक लक्षमां तो ल्यो. बहारनी वात उपर लक्ष
आप्युं छे पण अंतरमां आत्मा पोते सुखथी भरेलो छे तेने जराक लक्षमां तो ल्यो. चैतन्यने चूकीने क्षणे क्षणे
भावमरणमां कां राची रहो? अज्ञानभावने लीधे आत्मा क्षणे क्षणे भावमरणथी मरी रह्यो छे, तेनी दया लावो!
आत्माने भवदुःखथी ऊगारवा माटे आत्मानी दया करो, एटले के मारो आत्मा आ भवभ्रमणथी केम छूटे तेनो उपाय
विचारो. आचार्य भगवान कहे छे के आ शुद्धचैतन्यपद ते ज तमारुं निजपद छे, तेने ओळखो; ते निजपदमां
स्थिरताथी तमारा भवभ्रमणनो नाश थई जशे.
उत्तरः– जंगलमां, आत्माना आनंदना अनुभवमां झूलता संतोने एवी ऊर्मि आवी केः अहो! आत्मानो
तेमनुं दुःख टळे..अहो, आवो आनंदस्वरूप भगवान आत्मा, परथी अत्यंत जुदो, तेने एक वार पण जो
परमार्थद्रष्टिथी ग्रहण करे तो ते जीवने अज्ञाननो एवो नाश थाय के ते ज्ञानघन आत्माने फरीने बंधन न थाय ने ते
मुक्ति पामे माटे, “हे भव्य जीवो! आत्माने परना कर्तृत्वथी रहित ज्ञायकस्वभावपणे ज विलसतो देखो”–एम परम
करुणाबुद्धिथी संतोए उपदेश कर्यो छे.