भादरवोः २४८४ः २१ः
आत्मानो गरजु...
आत्मानो अर्थी शुं करे?
“विश्रांति विला” ना वास्तु प्रसंगे पू. गुरुदेवना प्रवचनमांथी.
वीर सं. २४८३ आसो सुद बीजः पंचास्तिकाय गा. १०३–१०४
जेने छ द्रव्यनुं यथार्थस्वरूप जाणवानी गरज छे, आत्मानुं खरुं स्वरूप समजवानी जेने गरज छे, आत्मानुं
हित केम थाय ते समजवानी जेने जिज्ञासा छे,–ए रीते गरजु–जिज्ञासु थईने जे आत्मा समजवा मागे छे तेने माटे
आ वात छे.
भगवान सर्वज्ञदेवनी वाणीमां ते प्रवचन छे, तेमां काळ सहित पांच अस्तिकायनुं, एटले के छ द्रव्यनुं स्वरूप
बताव्युं छे. एवा छ द्रव्यनुं स्वरूप...जाणीने,–कई रीते?–के ‘आत्माना अर्थीपणे’ जाणीने, एम निर्णय करवो के आ
छ द्रव्योमांथी विशुद्ध चैतन्यस्वरूप जीव ज हुं छुं, आवुं मारुं स्वरूप ते ज मारुं निवासधाम ने विश्रांतिस्थान छे.
अरे, अनंतकाळथी में मारा स्वरूपमां वास कर्यो नथी, ने परमां मारो वास मानीने हुं बहार भटकयो छुं. हवे
स्व–घरमां वास करीने स्वरूपमां विश्रांति लउं–एम आत्मानो गरजु थईने जे समजवा मांगे छे तेणे आ
पंचास्तिकायना श्रवणथी एम निर्णय करवो के हुं विशुद्ध चैतन्यस्वरूप छुं; मारा ज्ञाताद्रष्टा–आनंदी स्वभावथी हुं
परिपूर्ण भरेलो छुं. अनादिथी हुं आवो ज हतो पण में अत्यार सुधी तेनो निर्णय नहोतो कर्यो. हवे तेवो अपूर्व निर्णय
करीने, ते निर्णयकाळे पोतानी अवस्थामां क्षणिक विकार वर्ततो होवा छतां, ते काळे ज पोताने भेदज्ञानरूप
विवेकज्योति प्रगट वर्तती होवाथी, ते विकारथी भिन्नरूपे पोताना विशुद्ध चैतन्यस्वभावने अनुभवतो थको विकारनी
संततिने छोडे छे, तेथी तेनो राग जीर्ण थतो जाय छे ने पूर्व बंधथी ते छूटतो जाय छे. आ रीते अशांत एवा दुःखथी ते
परिमुक्त थाय छे, ने स्वरूपमां विश्रांत थईने शांतिनो अनुभव करे छे.
भाई! तने आत्मानी गरज होय,–तुं आत्मानो अर्थी हो तो पहेलां आवो निर्णय कर के हुं विशुद्ध
चैतन्यस्वभाव छुं. विशुद्ध ज्ञान–दर्शन–आनंद सिवाय बीजुं कांई मारुं स्वरूप नथी. आवा स्वरूपनो निर्णय करीने ते
तरफ ढळतां रागादि तरफनुं वलण अत्यंत शिथिल थई जाय छे, ने तेथी आत्मा कर्मबंधथी छूटतो जाय छे. आ ज
दुःखथी परिमुक्त थवानो उपाय छे.
आत्मानुं वास्तविक स्वरूप तो विशुद्ध चैतन्यस्वभाव छे; ते उपरांत जे विकार देखाय छे ते तो आरोपित छे,
ते मूळस्वरूप नथी. माटे ते आरोपित भावथी पोताना असली स्वरूपने भिन्न जाणतो थको, ते भेदज्ञानज्योतिवडे
रागद्वेषपरिणतिने छोडे छे ने विशुद्ध चैतन्यस्वरूपने ग्रहे छे. ते जीवने रागादि जीर्ण थतां जाय छे. जेम जघन्य
चीकासरूपे परिणमवानी तैयारीवाळो परमाणु भविष्यनी बंधपर्यायथी पराड्मुख वर्ते छे एटले के ते छूटो पडी जाय छे,
तेम विशुद्ध चैतन्यस्वरूपने ग्रहीने जे जीव रागादिनी चीकासथी पराड्मुख वर्ते छे ते पण पूर्वबंधथी छूटतो जाय छे, ने
ए रीते दुःखथी परिमुक्त थाय छे.
ज्यां सुधी पोताना विशुद्ध चैतन्यस्वरूपनो निर्णय जीवे नहोतो कर्यो त्यां सुधी ते कर्मबंधनी परंपराना