Atmadharma magazine - Ank 180
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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आसोः २४८४ः ९ः
जीवोमां क्यांय तारुं हित–अहित नथी; तुं ज पोते तारा हित–अहितरूप कार्यनो कर्ता छे, कोई बीजो तारा हित–
अहितनो कर्ता नथी–तो हवे तारे पोते पोतानुं अहित क्यां सुधी करवुं छे!! अत्यार सुधी तो अज्ञानथी परने हित–
अहितना कर्ता मानीने तें तारुं अहित ज कर्युं. पण हवे तो, ‘मारा हित–अहितनो कर्ता हुं पोते ज छुं, मारुं अहित
टाळीने हित करवानी ताकात मारामां ज छे’ एम समजीने तारुं हित करवा माटे तुं जागृत था. परना अस्तित्वथी
तारा अस्तित्वनी अत्यंत पृथकता जाणीने, पोताना ज्ञानानंद स्वरूप तरफ वळ.–आ ज जिनप्रवचननो अने संतोनो
उपदेश छे, ने आ ज मोक्षनो उपाय छे.
हे जीव! तारुं अस्तित्व तारामां, ने बीजानुं अस्तित्व बीजामां; तारा हितने माटे तारे बीजानी सामे जोवुं पडे
के बीजानी खातर तारे रोकावुं पडे एम नथी.
प्रश्नः– बीजानुं तो ठीक, पण आ देहनी संभाळ खातर तो रोकावुं पडे ने?
उत्तरः– भाई, देहनुं अस्तित्व पुद्गलमां, ने तारुं अस्तित्व तारामां; तुं संभाळ राख तो देहनुं अस्तित्व टके
एम नथी. जीवनुं अस्तित्व पोताना ज्ञानादि गुणोमां छे, देहमां नहि; अने देहनुं अस्तित्व अजीव–परमाणुओमां छे,
जीवमां नहि. कोईने लीधे कोईनुं अस्तित्व नथी, तो पछी बीजाने खातर रोकावुं पडे ए वात क्यां रही?
अरे, कर्मने लीधे रोकावुं पडे एम पण नथी....कर्मनुं अस्तित्व पुद्गलमां छे, ने जीवनुं अस्तित्व जीवमां छे;
रागनुं अस्तित्व पण जीवमां छे. जीव अने कर्म बंनेनुं अस्तित्व ज भिन्न छे, कोईने कारणे कोईनुं अस्तित्व नथी.
आ रीते पंचास्तिकायने भिन्न भिन्न जाणीने, शुद्ध चैतन्यस्वरूप एवा निज आत्माने जुदो तारववो; तेनी
मुख्यता–प्रधानता करीने, तेनो महिमा चिंतवीने, तेना तरफ झूकवुं. आ जगतना अनंत द्रव्योमां शुद्धज्ञानरूप निज
आत्मा ते ज हुं छुं, एना सिवाय बीजुं कांई मारुं नथी–एम निश्चय करीने तेवो अनुभव करवो. जगतना बधा सत्
पदार्थोनी सत्ता स्वीकारीने स्वकीय चैतन्यसत्तानुं शरणुं लेवानी आ वात छे. जगतना पदार्थोने जाणी–जाणीने शुं
करवुं?–के पोताना चैतन्यस्वभावनुं शरण करवुं, तेनो आश्रय करवो.
जगतमां छ प्रकारनां द्रव्यो;
तेमां एक जीव, पांच अजीव;
जीवो अनंत, ते दरेक ज्ञानस्वरूप;
तेमां पोतानो आत्मा भिन्न, ज्ञानस्वरूप.
–आ प्रमाणे पोताना आत्माने जगतथी जुदो नक्की करवो; केवा स्वरूपे नक्की करवो?–के विशुद्ध
चैतन्यस्वभाव स्वरूपे नक्की करवो.
जीवना अस्तित्वना बे पडखां; द्रव्य अने पर्याय; तेमां द्रव्य तो शुद्ध एकरूप छे, पर्यायमां शुद्धता अशुद्धता बंने
होय छे. प्रथम शुद्ध द्रव्यस्वभावनो निर्णय कराव्यो के विशुद्ध चैतन्यस्वरूपे पोताना आत्माने नक्की करवो, शुद्ध
द्रव्यस्वरूपनो निर्णय कराव्या पछी, पर्यायमां जे विकार छे तेनुं पण ज्ञान करावे छे. शुद्ध चैतन्यस्वरूप ते तो
अनारोपित–असली स्वभाव छे, ने विकार तो आरोपित विभाव छे. शुद्ध द्रव्यना निर्णय वगर आरोपित एवा
विकारनुं ज्ञान थतुं नथी.
जो शुद्ध स्वरूपना ज्ञान वगर एकला विकारने जाणवा जाय तो ते विकारने ज निज असली स्वरूप मानी ल्ये,
एटले साचुं ज्ञान थाय नही. जेम निज जीवने जाण्या वगर छ द्रव्यो जणाता नथी, जेम उपादानने जाण्या वगर
निमित्तनुं यथार्थ ज्ञान थतुं नथी, जेम निश्चय वगर खरो व्यवहार होतो नथी, तेम शुद्धस्वरूपने जाण्या वगर एकला
विकारनुं यथार्थ ज्ञान थतुं नथी, आ मोटो सिद्धांत छे.
जेम उष्णता वखते पण पाणीमां ठंडो स्वभाव छे, तेम पर्यायमां विकार वखते पण आत्मामां शुद्ध निर्विकारी
चैतन्यस्वभाव छे, एम सर्वज्ञदेवे कह्युं छे.
प्रश्नः– ते स्वभावनो निर्णय कई रीते थाय?
उत्तरः– ते स्वभाव तरफना ज्ञानथी ज तेनो निर्णय थाय छे. जेम उष्णता वखते पाणीमां ठंडो स्वभाव छे ते
स्वभाव हाथ–पग के आंख–कान–नाक–जीभ वगेरे इन्द्रियोथी जणातो नथी, तेमज आकुळता–राग–द्वेष–संकल्प–
विकल्पवडे पण तेनो निर्णय थतो नथी, पण पाणीना स्वभाव संबंधी ज्ञानवडे ज तेनो निर्णय