Atmadharma magazine - Ank 180
(Year 15 - Vir Nirvana Samvat 2484, A.D. 1958)
(Devanagari transliteration).

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ः १०ः आत्मधर्मः १८०
थाय छे. तेम आत्मानी पर्यायमां विकार वर्ततो होवा छतां, सर्वज्ञदेवे आत्मानुं स्वरूप शुद्ध चैतन्यस्वभावी कह्युं छे, ने
ज्ञानीओए तेवुं अनुभव्युं छे; ते शुद्ध स्वभावनो निर्णय कोई इन्द्रियोथी के मनना संकल्प–विकल्पोथी थतो नथी, पण
ज्ञानने अंतरमां लंबावीने ते स्वभावनो निर्णय थाय छे. ज्ञानने अंतरमां वाळतां ज स्वभावने स्पर्शीने एवो निर्णय
थाय छे के अहा! मारो स्वभाव आकुळता अने आताप विनानो परम शांत छे, क्षणिक आकुळता ते मारुं परम स्वरूप
नथी, मारुं परम स्वरूप तो आनंदथी उल्लसतुं छे.
(अहीं पाणीना द्रष्टांतमां ने आत्माना सिद्धांतमां एटलो फेर छे के, उष्ण पाणीना ठंडा स्वभावनो निर्णय
करतां ते ज क्षणे तेनी ठंडाशनुं वेदन तो थाय के न पण थाय; ज्यारे आत्माना शुद्ध स्वभावनो निर्णय करतां ते ज क्षणे
अंतरमां तेनी शुद्धताना अंशनुं आनंदसहित वेदन जरूर थाय ज छे. ज्यां सुधी एवुं वेदन न थाय त्यां सुधी
स्वभावनो सम्यक् निर्णय न कहेवाय.)
अरे, जीवोनुं लक्ष बहारमां जे दोडे छे पण अंतरमां पोताना तरफ लक्ष वळतुं नथी तेथी पोतानी महत्ता
भासती नथी ने परनी ज महत्ता भासे छे. सिद्धभगवंतो आवा महान, अर्हंत भगवंतो महान, संत–मुनिवरो ने
धर्मात्माओ महान!–एम तेओनी महत्ता गाय छे, पण हे भाई! जेनी महत्ता तुं रातदिन गाय छे ते तुं पोते ज छे,
केमके संतो कहे छे के–जेवो अमारो आत्मा तेवो ज तारो आत्मा; माटे हे जीव! तुं तारा स्वभावनी महत्ताने लक्षमां ले.
वळी अर्हंत–सिद्ध के संत–धर्मात्माओनी पण खरी महत्ता त्यारे ज समजाय छे के ज्यारे पोताना स्वभावनी महत्ताने
समजे. सर्वज्ञो अने संतो जे मार्गे अंतरमां पेठा ते मार्ग तारो तारामां ज छे; अंतरमां चिदानंद स्वरूपमांथी सहज
शीतळ आनंद प्रगट करीने आतापनो तेमणे नाश कर्यो छे, तुं पण आतापनो नाश करीने सहज शीतळ–आनंद प्रगट
करवा माटे तारा चिदानंद स्वरूप तरफ वळ.
हे जीव! तारा आनंदनुं अस्तित्व तारा स्वभावमां छे, बहार नथी. जगतना बाह्य पदार्थोनी जे कांई परिणति
थती होय तेनी साथे तारे कांई लेवादेवा नथी. तारा दुःखमांय तुं एकलो ने तारी शांतिमांय तुं एकलो. सर्वज्ञो तारी
समीप बेठा होय तो पण तेओ तारी परिणतिने सुधारी द्ये एम नथी, अने अनेक दुश्मनो तने घेरी वळ्‌या होय तो
पण तेओ तारी शांतिने बगाडी शके एम नथी. तारा अंर्तस्वभावना अवलंबन विना बीजेथी तारी शांति
आववानी नथी, अने तारा स्वभावना अवलंबने जे शांति प्रगटी ते बीजा कोईथी बगडवानी नथी. अहा केटली
स्पष्ट वस्तुस्थिति छे! छतां, बहारथी मारी शांति आवे ने बीजो मारी शांति लूंटी ल्ये–एवी अज्ञानी जीवनी भ्रमणा
मटती नथी. जो आ वस्तुस्थिति समजे तो अंतर्मुख थईने पोतानी शांति पोताना अंतरमां ज शोधे, अने
अंर्तशोधनथी शांति मळ्‌या वगर रहे नहि. भगवानने अने संतोने शांतरस प्रगटयो ते क्यांथी प्रगटयो?
अंर्तस्वभावमां शांतरसनो समुद्र भरेलो हतो ते ज उल्लसीने प्रगटयो छे. हे जीव! सम्यग्ज्ञान द्वारा तुं पण तारी
स्वभावशक्तिने ऊछाळ. अहो! मारा चिदानंद स्वभावमां ज शांतरसनो समुद्र भर्यो छे–एम विश्वास करीने तेमां
एकाग्रता करवी ते ज शांतिनो उपाय छे.
मारी शांति, अने ते शांतिनो उपाय, बाह्य इन्द्रियविषयोमां क्यांय नथी पण अंतरमां अतीन्द्रियस्वरूपमां ज
छे;–आम पहेलां पोताना अतीन्द्रिय चैतन्यस्वभावनो ज्ञानवडे निर्णय कर. ‘हुं कोण छुं” एम निजस्वरूपने जाणवा
माटे तारा अंतरना अतीन्द्रिय–ज्ञानस्वभाव सिवाय बीजा कोईनो सहारो नथी. भले तारी चारे बाजु संतमुनिओना
टोळां बेठा होय तो पण, तारा अंर्तस्वभावना आश्रय वगर तने शांति आपवा बीजुं कोई समर्थ नथी; अने जो तें
तारा स्वभावनो आश्रय कर्यो छे तो पछी, भले दुनिया आखी डुली जाय के ब्रह्मांड आखुं गडगडी ऊठे तो पण तारी
शांतिने फेरववा कोई समर्थ नथी. आ रीते, जगतथी भिन्न पोताना अस्तित्वने जाणीने, अने मारी शांतिनुं
परिणमन मारा अंतरना साधनने आधीन छे–आवुं भान करीने. जे जीव पोताना अंतरमां ठरे छे ते परम शांतरस
प्रगट करीने सर्वदुःखोथी मुक्त थाय छे.
जेम उकळतुं पाणी फदफदतुं होय, ते जराय शांत न रहे, तेम आ संसारमां घोर दुःखोथी जीव फदफदी रह्यो छे,
तेने जराय शांति नथी;–आवा संसार–